छह हजारी बनने का सफर : स्टोक गांव-स्टोक बेस कैंप (Story Of 'The First Summit' : Stok Village-Stok Base Camp)

25 जून 2018
2010 तक मैं ट्रेकिंग का केजरीवाल था, उसे राजनीति की और मुझे पहाड़ों की जानकारी न के बराबर थी । 2018 में देखता हूं तो हाल वैसा ही है, भयानक ऐज दिल्ली का वेदर । 2013 में ख्याल आया कि मैं भी पहाड़ चढूंगा, समिट करूंगा । 5 साल तक हर पहाड़ से हिम्मत मांगी और जब हिम्मत आई तब एकसाथ 2 चोटियां फतेह हुई, स्टोक कांगडी (6130 मी.) और माउंट यूनम पीक (6093 मी.) । जानते है छह हजारी बनने की विधि । 

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स्टोक कांगरी ट्रेकिंग - जून 2018 (PC: Nupur Singh)

क्या आप लोग जानते हैं कि “दुनिया के सबसे दुर्गम हाईवे मनाली-लेह को 2 बार दौड़कर नापा जा चुका है” । अगर नहीं पता तो बता देता हूं, एक बन्दा है फेरेंक स्योनी जिसे कुछ लोग मॉन्स्टर भी कहते हैं । उसने इस 480 किमी. लम्बे हाईवे को पहली बार 2017 में 113:13:29 घंटे में दौड़कर पार किया और इस साल अपना ही रिकॉर्ड तोड़ते हुए उसने हाईवे को 108:52:29 घंटे में पार किया । यह किस्सा इसलिए बताया जा रहा है क्योंकि दोनों बार मैं इस राक्षस के साथ था । राक्षस की जानकारी यहां क्लिक करके मिल सकती है ।

उपरोक्त घटना ‘द हैल रेस’ के सालाना इवेंट ‘हैल अल्ट्रा 480’ में घटी । बीड़ (1550 मी.) से लावे-लश्कर के साथ हम सभी मनाली (1950 मी.) 15 जून को पहुंचे जहां से रेस 18 जून 2018 देर रात 10 बजे शुरू हई । इवेंट के साथ-साथ हम तीन जनों को डबल तैयारियां करनी पड़ी । रकसैक में बर्तन-भांडे से लेकर ऊनी कच्छों तक को वरीयता दी गई । तरुण गोएल के एंटी-जीनवादी होने के फैसले का सम्मान करते हुए यहां भी जीन का कठोरता से विरोध किया गया । 

पिछले 2 सालों से हम लोग इस इवेंट से पहले बहुत-सी रसीली परियोजनाएं बनाते आ रहे हैं, समय गवाह है कि किस प्रकार सभी ‘परी-योजनाएं’ ठन्डे बसते में खिसक गई । पहली बार हमें पदुम-दारचा साइकिलिंग करनी थी, जहां साइकिल से पहले हमारे टायर पंचर हो गये, दूसरी बार चुमाथांग वैली में गुलछर्रे उड़ाने थे, गुलछर्रे कम लेकिन धूल ज्यादा उड़ाते हुए हम बीड़ पहुंचे वाया चुमाथांग वैली इन जस्ट 2 डेज, वैसे वो एक शानदार अनुभव था । 

दिन-रात चली रेस में कम सोने की वजह से कभी मुझे खुदका मार्श (लगभग 225 मिलियन किमी.) पे होने का शक होता तो कभी मून (38,4,400 किमी.) पे । 5 दिन में मात्र 17 घंटे की नींद की वजह से मेरे साथ कुछ अजीब घटा जिसके तहत केजरीवाल मेरा फेवरेट हो गया, इस शर्मनाक हरकत के कारण मेरा ‘इंसानियत से विश्वास उठ जाना’ प्राकृतिक अवस्था माना जाये । 23 जून को नरकीय यातना समाप्त हुई, 24 को लेह (3500 मी.) में रुकने वाले सभी सहकर्मी 25 की सुबह मनाली के लिए कूच कर गये । 

25 को मिशन की शुरआत हुई जिसके अंतर्गत तीन लोगों ने ‘मोमबत्ती की लो’ पर हाथ रखकर बागी बनने की कसम खाई । कफन बांधने के बाद सभी स्टोक कांगड़ी के लिए निकले, गौरव के गंभीर चेहरे की तुलना ‘संत पिटर ग्रिफिन’ (The Family Guy) से की जा सकती थी । 

स्टोक कांगड़ी (6130 मी.) के लिए परमिट आई.एम.एफ (IMF) चांगपा रोड, लेह से भी बन जाता है । जहां समस्त प्रक्रिया में आपको एक आधार कार्ड की फोटोकॉपी, एक फॉर्म पर ऑटोग्राफ, इमरजेंसी मोबाइल नंबर उपलब्ध कराने हैं, बाकि डिटेल वहां बैठी सुंदर लड़की अपने आप भर लेती है । जिसका चेहरा देखकर मैंने मन-ही-मन सोच लिया कि मुलायम लड़की का नाम ‘डोलमा’ होगा । अच्छा डोलमा इतनी भोली है वो हिंदी भाषी से भी पूछेगी कि “फ्रॉम व्हिच कंट्री?” । अंत में 5 का सिक्का देकर आपको स्टोक कांगड़ी परमिट के साथ ढेरों शुभकामनाएं मुफ्त मिल जाती हैं डोलमा से । और हां गुप्त प्रेरणादायक जानकारी के तहत “सोलो/अकेले भी स्टोक कांगड़ी जाया जा सकता है और अगर आप लेह से परमिट नहीं भी बनवा पाते तो स्टोक बेस कैंप से यह अधूरी इक्षा सहर्ष पूरी हो जाती है” ।

थोड़ी ही देर में 3 का आंकड़ा 4 तक पहुंच गया । 480 किमी. प्रतियोगिता में दौड़ने वाले एक भारतीय मूल के धावक ने भी इस मिशन को अपना प्रथम और अंतिम मिशन बताकर, मेरा दिल जीत लिया । लेकिन मुझे उसके बागीपन पर संदेह हुआ क्योंकि न उसने आग पर हाथ जलाकर कसम खाई और न ही कफन सिर पे बांधा । लेह मार्किट में हमने ब्रेकफास्ट किया और चौथे बागी को साफ-साफ शब्दों में बात समझाने की कोशिश करी ।

“कि भाई आप 2 दिन पहले ही ए.एम.एस (Acute Mountain Sickness) से पीड़ित थे और लेह हॉस्पिटल में रहकर आये हो, और आज आप स्टोक कांगड़ी चढ़ने की बात कर रहे हो “ये अच्छी बात नहीं है” । आपको फिर से ए.एम.एस दबोच सकता है, मेरी बात मानो तो बस बेस कैंप तक चलना अगर वहां अच्छा फील हो तभी ऊपर जाना, नहीं तो भारी समस्या खड़ी हो सकती है”, उसका प्रतिक्रिया-मुक्त चेहरा देखकर मैं समझ गया कि “उसे मेरा दिव्य-ज्ञान तीन पराठे खाने के बाद भी समझ नहीं आया” । 

ताजा जानकारी के अनुसार लेह से स्टोक गांव के लिए कोई भी बस नहीं जाती, बड़े-बूढ़े बताते हैं कि सन 2000 के आसपास स्थानियों ने अपनी-अपनी गाड़ी खरीद ली जिसके बाद धीरे-धीरे सभी ने बस को अवॉयड करना शुरू कर दिया । कभी-कभी तो हफ्तों तक बस सिर्फ एक ही सवारी को उतारती-चढ़ाती रही । बाद में टूरिस्म बढ़ने से टैक्सी वालों की चांदी कटने लगी । लेह से स्टोक तक दूरी मात्र 15 किमी. है जिसके लिए आपसे 800 से 1000 रु. तक वसूले जा सकते हैं अगर आप तेनजिंग टाइप ड्राइवरों के आगे घने अंग्रेज न बने तो । अश्वनी ने फरिश्ते की तरह मशीनी-रूप से सारी जानकारी हमारे साथ साझा करी । अश्वनी ने स्टोक कांगड़ी चढ़ी हुई है और वो एक लड़की है जोकि एक दिन स्टोक गांव में बिताकर फिर स्वीट होम की ओर पलायन करेगी और वो मेरिड भी है, ओवर एंड आउट, गुप्त जानकारी यहीं समाप्त होती है । 

अश्वनी की मानते हुए हमने लेह न्यू बस-स्टैंड से चोगलम्सर (3251 मी.) की बस ली, किराया 10 रु. प्रति व्यक्ति, चोगलम्सर से स्टोक (ट्रैकिंग पॉइंट) तक टैक्सी से 200 रु. लगे । अगर आप सुबह जल्दी पहुंचे तो शैयर्ड टैक्सी मिलती है जोकि और सस्ते में स्टोक छोड़ देगी । हमें छोड़ने वाला इंसान स्टोक गाँव का ही रहने वाला है, जोली टाइप व्यवहार वाले साहब का नाम वहां के परिवेश से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता, गुरमत (9622160376) । 

दोपहर 1:05 हमारी चुनौती शुरू हुई, नेशनल पार्क/वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में 60 रु. प्रति व्यक्ति की दर से पर्ची कटी जिसकी वैधता 15 दिन जीवित रहेगी, चाहे हमारा कल हो न हो । यह ट्रैक ट्री लाइन से ऊपर है और यहां ट्री ढूंढने का प्रयास सभी के सामने आपके ‘मॉल पीने’ की आदत को उजागर कर सकता है । खुद को अक्लमटाईज करने के लिए लेह में कुछ दिन सैर-सपाटा करें, हो सके तो लेह मार्किट में ‘नेहा स्वीटस’ से देशी घी में बनी 120 रु. की आधा किग्रा. जलेबी खाकर अक्लमटाईजेशन प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है, और अंत में दिल करे तो ढेर सारा पानी का सेवन भी अवर्जित है । 


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स्टोक गाँव से शुरू हुआ सफ़र 6000 की ओर

चलने से पहले ट्रैक-लीडर होने का फ़र्ज़ निभाते हुए मैंने सभी की आँखों में झांककर देखा, सभी की आँखों में अंगारे दहक रहे थे सिवाय एक के । मैंने चौथे बागी को फिर से समझाया कि “सिर्फ बागी सोचने भर से नहीं बन जाते, हाथ जलाना पड़ता है, कसम खानी पडती है, कफन बांधना पड़ता है” । वो साउथ इंडिया से है, उसे हिंदी बिल्कुल भी समझ नहीं आती, उसे तो हर साउथ इंडियन के व्यक्तिगत अधिकार के बारें में भी नहीं पता जिसके तहत उन्हें हिंदी भाषियों से वार्तालाप के दौरान ‘तोड़ा-तोड़ा’ बोलने  की स्वतंत्रता प्रदान की गई है । 

अगले 15 मिनट में कौन कितने पानी में है साफ नजर आने लगा । मुझे लगा था चौथा बागी एक उल्ट्रा रुन्नर है और इवेंट में भी 200 किमी. से ज्यादा दौड़ा है तो उसकी स्पीड अच्छी होगी लेकिन स्पीड का उससे कोई लेना देना नहीं दिखा । वो बस चल रहा था, ‘तेज या धीरे’ इन मापदंडों का उससे न कोई मानसिक सम्बन्ध दिखा न शारीरिक । नूपुर अच्छा कर रही थी और एकमात्र महिलाकर्मी चौथे बागी से आगे थी । गौरव तेज चल सकता था लेकिन वो मेरे पीछे था क्योंकि आई.एम.एफ. में दर्ज हुई जानकारी के हिसाब से मैं लीडर था, और मुझे रास्ता पहले से पता था । घंटा, जबकि ऐसा कुछ नहीं था उल्टा कम ऑक्सीजन की वजह से मेरे फेफड़े पसलियों में टक्कर मार रहे थे, वहीं मुझे कलेजे में भी भारी जलन महसूस हो रही थी, ब्रेकफास्ट में पराठे नहीं खाने चाहिए थे । 


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चांग-मा, 4055 मीटर


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रुमब्क की ओर जाती ट्रेल

चांगमा (4055 मी.) हमने पहले 75 मिनट में क्रॉस कर लिया जोकि स्टोक ट्रैकिंग पॉइंट से 5 किमी. दूर है, यहां का इंचार्ज ‘असरफ’ है जोकि ‘लदाख-मित्रा’ के लिए काम करता है । यहां से दो रास्ते निकलते हैं, दाएं जाएं तो रुमब्क (3967 मी.) पहुंच सकते हैं वाया स्टोक ला (4877 मी.), और बाएं स्टोक कांगड़ी । चांगमा में हमने ब्रेक लिया नूपुर आ चुकी थी, चौथे बागी का कोई अता-पता नहीं था । उसके हिसाब से हम सभी को अपनी नेचुरल स्पीड से चलना चाहिए और मेरे लिए वेट नहीं करना चाहिए, अंग्रेजी में दिए गये इस शर्मनाक बयान पर मैं सिर्फ “या या” ही कह पाया । आज का प्लान स्टोक बेस कैंप पहुंचने का है लेकिन तेज चलती सांसों के आधार पर मैं मान चुका था कि हमें अगले स्टेशन मनकर्मों में फैल जाना चाहिए । अब तक कम ऑक्सीजन ने सभी के कोयले ठन्डे कर दिए थे । 


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मनकर्मों की ओर बढ़ते ट्रैकर

अच्छा एक पॉइंट तो मिस कर ही दिया कि हम रकसैक में लेकर क्या-क्या आए हैं? । हमने एक थ्री-मेन टैंट कैरी किया है, स्लीपिंग बैग और मैट्रेस सबके पास है, चौथे बागी के पास सिर्फ स्लीपिंग बैग, एक ट्रैकिंग पोल और एक जैकेट है और कुछ नहीं । बर्तन-भांडे और बाकी की खाद्य सामग्री पहले जत्थे के साथ वापस बीड़ भिजवा दी गयी है । हां कुछ चोकलेट और ऊनी जुराबों ने बुरे वक्त में भी साथ नहीं छोड़ा । और यहां बताते हुए बेहद खेद हो रहा है कि जल्दबाजी में कैमरा (डी.एस.एल.आर) भी बीड़ पहुंच गया, अब काणे की आखिरी आंख मोबाइल ही है । 


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मंगल की यात्रा (PC: Nupur Singh)

3 घंटे 25 मिनट में गौरव और मैं मनकर्मों कैंपसाईट (4350 मी.) पहुंचे जहां पहले से लगे टेंट किसी लघु-उद्योग की फीलिंग दे रहे थे । यहां से अगर कैंपसाईट से बाईं तरह चलते जाएं तो माटो पहुंच सकते हैं वाया माटो ला (4910 मी.) । थोड़ी देर में नूपुर भी आ गई, अब टाइम शाम के 4:40 हो गया । चौथे बागी का सात समुन्द्र पार तक कोई निशान नहीं दिखा, मुझे डर था कहीं वो चांगमा से रुमब्क (3812 मी.) वाला रास्ते पर न निकल जाये और अगर ऐसा हुआ तो समस्या जटिल हो सकती है । समस्या से निपटारा नीचे जाते एक घोड़े वाले को चिट पर मैसेज लिखकर करवाया चौथे बागी को डिलीवर करने के लिए, जिसको गौरव ने अंग्रेजी में लिखा था । मेरे ख्याल से मैसेज का भाव साफ था “तुमसे ना हो पायेगा” ।


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मनकर्मों कैंप साईट


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मनकर्मों से दिखती स्टोक रेंज (PC: Nupur Singh)

फिर कई बार सोचा कि मुझे नीचे जाकर उसकी खबर लेनी चाहिए । एक बार तो मैं पूरे जोश में आकर वापस निकल ही गया था कि तभी स्थानीय अंकिल ने समझाया कि “आ जायेगा, वैसे भी मैसेज तो भिजवा ही दिया है” । उनकी बातों ने जलते कलेजे को ठंडक पहुंचाई । हमने टैंट पिच करके चाय का दौर समाप्त ही किया था कि दूर वो आता दिखाई दिया । उसे दूर से पहचानना आसान था, उसका खूनी लाल टी-शर्ट और एकमात्र सम्पत्ति जोकि स्लीपिंग बैग था, के साथ धीरे-धीरे हमारी ओर बढ़ रहा था । 

वो सवा सात बजे पहुंचा । अब वक्त था डिनर का । मेनू पढ़कर मैनू खीरगंगा की याद आ गई । 50 की चाय, और 250 की थाली पढ़कर चारों ने मूक-बधिर और होश गुल होने की एक्टिंग पूरी शिद्द्द्त से निभाई । मुझे तो लग रहा था कि सुबह तक इतना बिल बन जायेगा कि जिम्मी (मनकर्मों का इंचार्ज) हमें आगे ही नहीं जाने देगा, खच्चरों का दूध निकलवायेगा, बर्तन धुलवायेगा वो भी ठन्डे पानी से । अब मेरा कलेजा बैठने लगा था । 


होटल ताज से भी महंगा मेनू

एक येती टाइप जर्मन कल गोलप कांगड़ी (5920 मी.) के लिए निकलेगा जहां वो स्नोबोर्डिंग करेगा,  ज़न्स्कर वो पहली बार मेरे जन्म से पहले 1985 में गया था और तब से लगभग दो-तीन साल में आता-जाता रहता है । मेरे ‘हेइल हिटलर’ बोलने पर वो मन ही मन मुझे कई बार गैस चेम्बर में जला चुका था । 

ढाई-ढाई सो का डिनर करके चारों थ्री-मेन में एडजस्ट हुए, गुड नाईट के बाद बैड थॉट आने लगे कि “अपने पास इतने पैसे हैं भी या नहीं कि आगे जा सके, ऊपर से अपना ही टैंट पिच करने का पैसा अलग से देना पड़ेगा”, आखिर ये टूरिज्म मिनिस्टर कौन है?, गुस्से में सोचते हुए मैं सो गया । 


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सुबह-सुबह स्टोक कांगड़ी के दर्शन

अगली सुबह 150 के नाश्ते ने आँखों को फटने पर मजबूर कर दिया, आँखों ने यहां फटने में दूसरा स्थान हासिल किया । चाय, ब्रेड और जेम...हे भगवान इतना कठोर क्यूं हो गया तू? । ब्रेड खा लूंगा बस तू टैंट पिचिंग का किराया माफ़ करवा दे । जब जिम्मी ने मुझसे 200 रु. टैंट पिचिंग के और 1800 लंच और डिनर के मांगे कसम से उस वक्त मैंने उसे अपनी नजरों ने नीचे गिरा दिया । सकूपहूप व वंडरलस्ट वालों का स्वर्ग, जहां रुपयों की दृष्टि से खाना मशहूर ताज होटल से टक्कर ले रहा था तो वहीं खाने की क्वालिटी फरीदाबाद स्थित रमेश समोसे वाले की चटनी को भरपूर कॉम्पीटिशन दे रही थी । इतना पैसा खर्च हो जाने पर लोग फेसबुक पर कैसे इतनी फाडू फिलोस्पी लिख लेते हैं, यहां तो इतना खर्चा होते ही अंडाशयों पर सुजन छा जाती है । 

सुना है लदाख रीजन में पैसे न देने या ज्यादा मोल-भाव करने पर स्थानियों ने टूरिस्टों को कुत्तों की तरफ धोया है, मैं पीट सकता हूँ लेकिन कुत्तों की तरफ बिल्कुल नहीं आखिर भाई की भी कोई रैपो है । पैसे चुकाकर चारों वहां से सुबह 10:25 पर निकले, मैं मन-ही-मन ‘गो टू हेल जिम्मी’ बोले बिना न रह सका । जिम्मी ने बताया कि “बेस कैंप तो छोटे शहर की भांति है, वहां तो मोबाइल पर 4जी भी चलता है और खुशी की बात यह है कि खाना वहां भी इतना ही सस्ता है”,...‘फक यू जिम्मी’ । चलते-चलते मैं वहां पहुंचकर किसी चमत्कार की उम्मीद कर रहा था जिसके तहत हमें फ्री खाना, रहना और हो सका तो मसाज भी मिलेगा । 


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रास्ते से दिखती लदाख रेंज 

आसमान बादलों से ढका था, हो सकता है ऊपर बर्फ गिर रही हो । तो आज का एजेंडा है कि चारों कल वाली गलती नहीं दोहराएंगे और एक-साथ धीरे-धीरे चलेंगे जिसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हमारा हाईट गेन होगा और साथ में बॉडी अक्लमटाईज भी हो जाएगी ।  

ट्रैक का पहला स्नो-ब्रिज क्रॉस करके धीरे-धीरे हम स्टोक कांगड़ी पीक के बेस कैंप (4971 मी.) पहुंचे । मनकर्मों से यह दूरी 3.63 किमी. है विद 617 मी. हाईट गेन । टेंट पिच करने के बाद जब ‘कल्याण’ के बारे में पुछताछ करी तब पता चला साहब गोलप कांगड़ी (5920 मी.) गये हुए है डॉक्यूमेंट्री शूट वालों के साथ । कल्याण स्टोक कांगड़ी बेस कैंप का इंचार्ज है और 100 से ज्यादा बार स्टोक कांगड़ी जा चुका है, और जनाब भी लदाख-मित्रा के सदस्य हैं । आज तड़के यहां बर्फबारी हुई थी जिसके अवशेष अभी भी दिख रहे थे । 


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स्टोक बेस कैंप (4971 मीटर)

बेस कैंप के नज़ारे के बारे में क्या बताऊं, जिस संख्या में यहां टैंट गाड़े गये थे उस हिसाब से इस स्थान को छोटी-मोटी तहसील घोषित कर देना चाहिए । बाद में कल्याण ने बताया कि “कभी-कभी तो यहां टैंटों की संख्या 1000 पार हो जाती है”, “क्यूं कोई कॉम्पीटिशन होता है क्या टैंट गाड़ने का?”, मेरे सवाल पर बिदककर उसने नर्मी से जवाब दिया, अरे भाई “माउंटेन लवर और सोलो ट्रेवलर नाम की भी कोई चीज होती है या नहीं”, और दोनों हंसने लगे । 

“1000 टेंटों की तरंगे, 
टॉयलेट पेपरों की उड़ती पतंगे” ।


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मार्श पर स्थित शापिंग माल 

अगर पंजाब नेशनल बैंक के सामने मुद्दा रखा जाएं कि “मंगल पर स्थित स्टोक कांगड़ी बेस कैंप पर पैसे न होने की वजह से हाहाकार मचा हुआ है तो पक्का सुनवाई होगी और एक छोटा-मोटा ऐ.टी.एम (ATM) अवश्य स्थापित कर दिया जायेगा, जिसमें खच्चरों को पद्मश्री से सम्मानित किया जायेगा, इस व्यव्स्था में अहम भूमिका निभाने के लिए” । 


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स्टोक कांगड़ी बेस कैंप (4971 मीटर)

दोपहर को ही हमने कल के लिए क्रैम्पोंस रेंट पर ले लिए, गौरव और नूपुर को ट्रैकिंग शूज भी रेंट पर लेने पड़े क्योंकि दोनों योद्धा रनिंग शूज में आए थे । कल्याण ने गोलप कांगड़ी आना जाना मात्र 7 घंटे में तय किया, उसे देखकर बस यही ख्याल आया कि इतनी उंचाई पर इनती एनर्जी उसे कहां से मिलती है, शायद 1000 टेंट ही उसे जीवित रहने की प्रेरणा देते हैं । जिम्मी का कहना ठीक निकला यहां और वहां का मेनू बिल्कुल सेम-टू-सेम है, चाय वहां भी 50 थी यहां भी लेकिन यहां की कम मीठी निकली । 

हालात का जायजा लेते हुए इस बार नूपुर ने चौथे बागी को दिव्यज्ञान दिया वो भी अंग्रेजी में, जिसके अंतर्गत उसे कल भी यहीं रुककर परसों गाइड के साथ समिट अटेम्प्ट करना चाहिए, नहीं तो इतनी स्लो स्पीड में उसे वापस आते-आते रात हो जायेगी । अंग्रेजी का चमत्कारी प्रभाव पड़ा और उसने कल ही समिट अटेम्प्ट करने की शपथ ली लेकिन गाइड के साथ । लदाख-मित्रा वाले बेस कैंप से बेस कैंप गाइड भी प्रोवाइड कराते हैं जिसका किराया 6000 रूपये तय और निश्चित है, जिसे न चुकाने पर हो सकता है आपको खच्चर बना दिया जाए । 

“तीनों अपने-अपने रकसैक ले जायेंगे, सभी अपना-अपना सामान रकसैक में रखेंगे और सुबह हम लोग 2 बजे उठकर ढाई बजे स्टोक पर धावा बोलेंगे”, मोटिवेशनल स्पीच देने के बाद मैंने अपना रकसैक पैक किया । शाम 6 बजे डिनर करके हम तीनों सो गये, रात 9 बजे कल्याण 150 रु. वाला पैक्ड लंच टैंट में छोड़ गया । 


स्लीपिंग बैग में पड़े-पड़े मुझे समिट से ज्यादा चिंता गौरव और अपने सिरदर्द की हो रही थी और यहां बढ़ते बिल की । माय गॉड ऐसे कौन करता है भई, टैंट पिच करने का 200, गियर्स का 200 अलग से, 250 वाली थाली का एकमात्र विकल्प सिर्फ मैगी था । मरता क्या न करता, पहाड़ फतेह करना है तो खाना तो खाना ही पड़ेगा चाहे बाद में यहां पूरे सीजन लोड फेरी करनी पड़े खच्चर बनके । 

Comments

  1. गजब की हिम्मत करी रोहित जो इतना ऊपर जा के भी सही सलामत वापस आ गये। ब्लॉग बढ़िया लिखा है। भाषा बहुतों के समझ नही आयगी पर मुझे बहुत अछी लगी। समय निकल कर पूरा ब्लॉग खंगालना पड़ेगा कि क्या क्या पोस्ट हुआ है। शुभकामनाये मेरी तरफ से

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    1. कुलवंत भाई को राम राम, हिम्मत क्या बस कर लेते हैं थोड़ा बहुत । यहां आने के लिए आपका धन्यवाद । पर्वतराज का आशीर्वाद बना रहे आप पर । शुभकामनाएं...

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  2. भाई आप की भाषा शैली का फैन हूँ मैं जितनी मर्जी बार आप का ब्लॉग पड़ लो कभी बोर नही होता मैं

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  3. भाई आप की भाषा शैली का फैन हूँ मैं जितनी मर्जी बार आप का ब्लॉग पड़ लो कभी बोर नही होता मैं

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    1. भाई जी जय हिन्द, आप लोग जब पढ़ते हैं और सपोर्ट करते हैं तब ही लिखने का मजा है। हिमालय की दृष्टि आप पर बनी रहे । शुभकामनाएं...

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    1. कमाल तो आप भी कम नहीं करती जी...शुभकामनाएं

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