उत्तराखंड के पॉवर प्रोजेक्ट्स वरदान या अभिशाप

हमें क्या फर्क पड़ता है हम तो टूरिस्ट हैं ना? । पहाड़ पर घूमने जायेंगे अच्छे नजारों के साथ फोटो व सेल्फियाँ खींच लायेंगे,  अब पहाड़ में आपदा आये या सुनामी हमें क्या....क्यों? । पिछले कल (7 फरवरी 2021) को धौलीगंगा में हम सबने महाप्रलय का नज़ारा देखा, न जाने कितने लोग बह गए, न जाने कितने पशु मारे गए...लेकिन किसको फर्क पड़ता है ।


बद्रीनाथ से लेकर हरिद्वार तक छोटे-बड़े सभी हाइड्रो और पॉवर प्रोजेक्ट्स को गिना जाये तो ये आंकड़ा 12 आता है, सिर्फ 318.5 किमी. में 12 प्रोजेक्ट्स । यहाँ स्थित पीपलकोटी पावर प्रोजेक्ट, NTPC के ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट, तपोवन विश्नुगढ हाईड्रो प्रोजेक्ट और धौलीगंगा पॉवर प्रोजेक्ट क्षतिग्रस्त हुए हैं ।

“अँधा विकास

अँधा विनाश”

विश्नुगढ पीपलकोटी हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट जोकि अलकनंदा नदी पर बना है, यह 444 मेगावाट का प्रोजेक्ट है जिसे बनाने में 2491.58 करोड़ रूपये की लागत आई है अब तक । जबसे इस प्रोजेक्ट की नींव रखी गयी तबसे ही स्थानियों ने इसके विरोध में आवाज उठाई, केस कोर्ट भी गया लेकिन जीत उद्योगपतियों की हुई । अकेले इस प्रोजेक्ट के लिए 265 परिवारों को स्थानांतरित कर दिया गया, मतलब ऐसे ही नहीं बकायदा पेपरों पे दस्तखत करवाके पक्का काम किया कंपनियों ने ।

ये कहानी सिर्फ इसी अकेले प्रोजेक्ट की नहीं है...जब-जब प्रोजेक्ट बनते तब-तब स्थानियों ने आवाज़ बुलंद करी जिसका सरकार की तरफ से कोई परिणाम न आया जबकि कुदरत समय-समय पर इसके भयावह नतीजे हमारे सामने रखती रही है ।


उत्तराखंड की जनसंख्या 2012 के हिसाब से एक करोड़ एक लाख है (1.01 लाख), जोकि भारतवर्ष की जनसंख्या की तुलना में सिर्फ एक प्रतिशत है । अब सवाल उठता है कि इतने लोगों को कितनी बिजली की जरूरत है, न यहाँ मैदाओं की तरफ ऐ.सी होते हैं, न पंखे और न ही फ्रिज, फिर किसके लिए इतने प्रोजेक्ट की आड़ में पहाड़ की छाती को चीरा जा रहा है ।

अगर कोई मित्र सिविल इंजीनियर है तो बता सकता है कि प्रोपर सर्वे के आधार पर बना नमूना इतनी आसानी से धराशाही नहीं हो सकता, यही हाल हमारी सड़कों का है । सवाल सबके मुंह में है लेकिन सिस्टम की जुबान कभी नहीं खुलती इनके जवाब देने को ।

मजे की बात यह है कि अलकनंदा के असीमित पानी को अलग-अलग दिशाओं में डाइवर्ट करने के लिए डायवर्जन डैम बनाए जा रहे थे विष्णुगढ प्रोजेक्ट पर जिसकी ऊंचाई 65-70 मीटर तक होती । डैम की मदद से रिजर्वाइर तैयार किए जा रहे थे लेकिन प्रोजेक्ट वालों का ध्यान इसपर नहीं गया कि आपदा की स्थिति में फंसे मजदूरों और स्थानियों को निकालने के लिए भी आपातकालीन द्वार बनाने चाहिए । बताया जा रहा है इन्हीं टनल में लगभग 150 मजदूर फंसे हैं जिन्हें निकालने में कई दिन का समय लग सकता है, अब तक सिर्फ 100 मीटर टनल को साफ़ किया जा सका है । क्या गरीब मजदूर बलिदान के लिए ही पैदा हुआ है ?, क्या किसी बेबस की आवाज़ कभी नहीं सुनी जाएगी? ।

अच्छा एक बात और जिसकी कोई बात नहीं कर रहा, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन जो 2025 तक तैयार हो जाएगी, यह रेल लाइन भी इसी रूट पर बन रही है । क्या उत्तराखंड के बालक स्वरूप पहाड़ तैयार हैं इतने बड़े विकास को झेलने के लिए? । एक मित्र (@akashbansal232) कहते हैं कि “विकास देश, काल परिस्थितियों के अनुसार की जाने वाली एक क्रमिक प्रक्रिया है, कम-से-कम सस्टेनेबल डेवलेपमेंट तो यही कहता है । बाकी विकास के नाम पर अबोध बालक के हार्मोन्स को इंजेक्शन लगाकर उसको दाढ़ी-मूंछ उगाना विकास नहीं उसके साथ खिलवाड़ है जिसका नतीजा भी अंतत: सबको भुगतना पड़ेगा...” ।

सब तरफ सिर्फ प्रोजेक्ट डैमेज की खबर पढ़कर तो मेरा मन भी डैमेज हो गया, क्या लोगों की जान जाना पाप नहीं है, क्या पवित्र  अलकनंदा में बहती इंसानों और पशुओं की लाशें पाप नहीं हैं, क्या पहाड़ की छाती में बारूद भरना पाप नहीं है । क्या पहाड़ ने ये सब माँगा था?, क्या स्थानियों ने इसके लिए आवेदन किया था? । क्या कोई लेगा जिम्मेदारी इसकी या कुदरत को ही इसका भी क्रेडिट लेना होगा कि “प्राक्रतिक का कहर खौफनाक होता है” ।

(@himalayanson) से बात हुई तो पता चला कि 1970 में चिपको आन्दोलन भी इसी रैणी गाँव से शुरू हुआ था और आज ये गाँव ही प्रोजेक्ट की बली चढ़ चुका है । चिपको आंदोलन पेड़ों का कटान रोकने और पेड़ों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था रैणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रैणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था ।

“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार,

मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार”

सुनने में आ रहा है कि चार धाम को जोड़ने वाला नेशनल हाईवे का चौड़ीकरण इस साल (2021) तैयार हो जायेगा जोकि 889 किमी. लम्बा होगा । बस और चाहिए ही क्या हम टूरिस्ट को फुर्र से कर्णप्रयाग पहुंच जाना रेल से, अपनी गाड़ी से मक्खन बने हाईवे पर सरपट दौड़ते हुए केदारनाथ के सामने खड़े जो जाना । हम तो टूरिस्ट हैं जी हम क्या कर सकते हैं सिवाय फोटो खींचने के? ।

“तेरी बर्बादियों की कहानी में मुख्य किरदार मेरा होगा ऐ पहाड़”

Comments

  1. बिलकुल सही कहा आपने, "विनाश का दूसरा नाम इंसान है।"

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    1. कपूर स़ाब आप आपदा प्रबन्धन सीमिति के प्रधान क्यूँ नहीं बन जाते

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  2. सही कहा आपने, आज उत्तराखंड का मतलब देव भूमि नही पिकनिक स्पॉट है

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    1. आजकल सभी धार्मिक स्थानों का यही हाल हो गया है सर

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