9 सितम्बर 2015
बुद्धि कम और जुनून ज्यादा का संगम रहा यह ट्रैक जिसमें दो छैल-छबीले छोरु अकेले ही निकल जाते हैं चंबा से लाहौल । रास्ते में आई आपदाओं का सामना ये डंटकर करते देखे गये, मणिमहेश कैलाश, जोतनू जोत, कुगति जोत क्रोस करके ये जब लाहौल की धरती पर कदम रखते हैं तब इनके चेहरे तेनजिंग नोर्वे और एडमंड हिलेरी जैसे दिखने लगे थे । पढ़ें रोमांच का नंगा नाच:
 |
मणिमहेश कैलाश यात्रा 2015
|
दिन 00 (फरीदाबाद से भरमौर)
कल इस समय मैं हिमालय में होऊंगा । उस एहसास को पाने, पीने और जीने को मेरी रूह कैसे तड़प रही है । अपनी माँ के आँचल में जो सुख बच्चे को मिलता है वैसा ही मुझे हिमालय में जाकर मिलता है । फेसबुक, व्हाटसऐप्प या इन्टरनेट पर जब भी जहाँ भी हिमालय की फोटो देखता हूँ तो मेरे मन में सारे विचार सीमाओं को तोड़कर बहने लगते हैं । ओह...कैसे बताऊँ उस अनोखे एहसास के बारें में? । शब्दों और जुबान के वश में नहीं है उस सैलाब को ज्यों का त्यों ब्यान करना । वो तो एक मौन एहसास है जिसे शब्दों में नापा नहीं जा सकता । उसे जुबान से बयान करना नासमझी होगी । “उसे देखकर भी देखा नहीं जा सकता, वो तो बीच की कड़ी है, जन्नत का द्वार” ।
तो बीइंग ए प्रो बंदरलस्ट होने के नाते मुझे ऊपर वाला पैराग्राफ लिखना ही था, मैं मजबूर हूँ सेल्फ ओबसेशन के कारण । आई हॉप यू कैन अंडरस्टैंड ।
सामान पैक करते हुए फ्योदोर दोस्तोवस्की का जालिम उपन्यास “अपराध और दंड” एक ओर रख देता हूँ जिसमें रस्कोलनिकोव ने बुढ़िया की खोपड़ी खोल दी है कुल्हाड़ी से । थोड़ा सामान और भरना बाकी है रकसैक में, जिसके बाद आज शाम 4 बजे रिपब्लिक ऑफ़ फरीदाबाद से शिव की नगरी भरमौर के लिए कूच हो जायेगा । नारकंडा के सबसे अमीर सेब विक्रेता नवीन जोगटा से सम्पर्क सध चुका है जोकि आज शाम 06:20 वाली बस से चंबा बस स्टैंड पर मिलेगा ।
शाम 04 बजे दिल्ली मेट्रो में बैठते ही एक और लम्बी यात्रा की शुरुआत हो जाती है । कश्मीरी गेट पहुंचकर सोचता हूँ कि कल भरमौर के उसी कमरे में रुकेंगे जिसमें पिछले साल ठहरना हुआ था । हिमाचल रोड़वेज की खिड़की नम्बर 15 से आती हवा मुझे उस कमरे की चींटियों और सीलन का एहसास कराती है । रात 12 बजे के आसपास जालन्धर क्रोस होता है, मैं अभी भी कुगती क्रोस करके लाहौल में प्रवेश करने के सपने देख रहा हूँ, सेब व्यापारी नवीन से बात करता हूँ वो भी बस में बैठ चुका है ।
बस चम्बा 09:30 उतारती है, नवीन 10:30 तक पहुंचेगा ऐसा उसने कंडक्टर से पुछकर बताया है । बस स्टैंड 930 मीटर ऊँचाई पर है...मैं बैठा-बैठा मोहित चौहान द्वारा गया गाना “चम्बे जाणा जरुर”, दो बार रिपीट मोड़ पे गाता हूँ । भूख का ख्याल है तो सोचता हूँ नवीन आ जाये फिर दोनों साथ खायेंगे, बोर हो रहा हूँ तो “क्राइम एंड पनिशमेंट” उपन्यास पढ़ता हूँ जिसके पेजों के कुछ फोटो मैं फ़ोन में खींच लाया हूँ ।
 |
कहीं रस्ते में |
10:30 बजे सेब व्यापारी नवीन जोगटा से मुलाकात होती है, दोनों हैण्ड शेक करके गले मिलते हैं और ‘मणिमहेश ढाबे’ पर आलू के पराठे खाते हैं चाय के साथ । 11:05 हम चंबा-भरमौर एक प्राइवेट बस में बैठते हैं जो दोनों के 90 रूपये लेकर 12:30 भरमौर उतारती है । भरमौर (2150 मी.) उतरते ही हम भोलेपन की सारी सीमाएं तोड़ देते हैं । दोनों अपने भारी बैगों के साथ ही भरमाणी माता के दर्शन को निकल पड़ते हैं बिना ये सोचे समझे कि इन 50-50 हज़ार किलो के बैगों को वापसी में कैप्चर किया जा सकता है ।
पहले 10 मिनट में हमें अपने भोलेपन का पता चल जाता है लेकिन हम यह सोचकर सख्त बनने का प्रयास करते हैं कि “हमारी यात्रा बहुत लम्बी है....हम चंबा से लाहौल और उससे भी आगे जा रहे हैं” । रास्ते में अनेकों निम्बू-पानी की दुकान, सेब बेचते बच्चे दिखाई देते हैं । चारों तरफ सेब की खुशबू उड़ रही है जिसपर सेब व्यपारी सेब की किस्म और क्वालिटी के बारें में एक छोटा सी ज्ञान-चर्चा करते हैं ।
 |
भरमाणी माता मंदिर जाते हुए
|
नवीन आगे है मैं पीछे, एक लड़का जो ठंडा लेकर बैठा है उससे पूछता हूँ:
मैं: मंदिर कितना रह गया है?
लड़का: अकेले हो?
मैं: वो भी साथ है (मिडिल फिंगर के इशारे से बताता हूँ)
लड़का: इतने भारी बैग लेकर जा रहे हो, रात ऊपर ही रुकोगे क्या?
मैं: नहीं आज शाम तक वापस आ जायेंगे.
लड़का: अबे साले
भरमौर से पता चलता है कि भरमाणी माता तक जाने के लिए दो रास्ते हैं, पहला पुराना पैदल रास्ता और दुसरा हाल ही में तैयार हुआ रोड़ वाला । रोड़ वाले के लिए टैक्सी लेनी पड़ेगी, किराया 200 रूपये लगेगा । आगे ब्यूरो रिपोर्ट कहती है कि गाड़ी से पहले पैदल इन्सान अपने गन्तव्य तक पहुंच जाता है । रोड़ की दुरी बहुत ज्यादा बताई गयी जो याद नहीं रही, पैदल दुरी 2.50 किमी. बताई गयी जिसे तय करने में हम 10-20 ब्रेक लेते हैं । एक बात और पता चली कि मणिमहेश कैलाश के दर्शन तब तक अधूरे हैं जब तक श्रद्धालु भरमाणी माता के दर्शन नहीं कर लेते ।
सवा तीन बजे हम मंदिर के प्रागण में खड़े हैं और लोगों को कुण्ड में नहाते हुए हम भी मिनट से पहले कच्छों में खड़े हैं कुण्ड में कूदने को । 2695 मीटर की ऊँचाई पर पानी की ठंडक छाती की गर्मी को मेल्ट करने में सैकेंड भी नहीं लगाती । बाहर आकर हम लाइन में लगकर भरमाणी माता के दर्शन कर रहे हैं कि तभी दो महिलाएं बाल खोलकर सर को जोर-जोर से हिलाने लगती हैं, इस विहंगम दृश्य को देखकर सभी एक सुर में चिल्लाते हैं “जय माँ भरमाणी” ।
 |
भरमाणी माता मंदिर
|
पास ही लगे एक लंगर में हम दाल-चावल खाकर चाय पीते हैं जिसके बाद दोनों एक-एक पैकेट बुढ़िया के बाल खाकर वापस हो लेते हैं भरमौर की ओर । साढ़े पांच हम चौरासी मन्दिर के सामने खड़े हैं यहाँ हर साल की भांति मेला लगा है, दुकानें, श्रद्धालु, पुल्स और जड़ी-बूटी बेचते लोग । जब किसी भी लंगर या सराय में रुकने का जुगाड़ नहीं होता तब हम रूम ढूंढते हैं । एक बंदा 500 रूपये मांगता है जिसे हम ये बोलकर डीनाई कर देते हैं कि टीवी का हमें क्या करना है । घूमते-घूमते एक बिहारी बाबू टकराते हैं जो 400 रूपये मांगते हैं, हम 150 बोलकर आगे चल पड़ते हैं । नवीन पहाड़ी बोलकर बिहारी बाबू का दिल जीत लेता है और डील 150 रूपये में डन होती है ।
 |
भरमाणी माता मंदिर के साथ लगा लगंर |
शाम साढ़े छह बजे सूरज लगभग ढल चुका है, ठंडी हवा बह रही है, बाहर का माहौल इतना रमणीय है कि जो इसे पहली बार देखेगा वो इसी का हो जायेगा । चौरासी मंदिर में सफाई चल रही है, पास ही एक और मंदिर में भजन बज रहे हैं, यात्री चाय पी रहे हैं, मफलर खरीद रहे हैं, पुल्स पूरी मुश्तैदी से जड़ी-बूटी बेचने वालों को इग्नोर कर रही है ।
बताते हैं कि यहाँ टोटल 84 मंदिर हैं, हम कोशिश करते हैं लगभग हर मंदिर घुमने की । लोगों को आइस-क्रीम खाते देखकर हम भी ठण्ड में वो भी 2170 मीटर की ऊँचाई पर सोफ्टी खाते हैं स्ट्रोबैरी फ्लेवर । 07:30 डिनर करके रूम में आ जाते हैं जहाँ एक बाबा मौजूद है...बाबा बताते हैं कि वो कुछ दिन भरमौर में रुककर कैलाश दर्शन को जायेंगे । वैसे तो हमारे पास स्लीपिंग बैग भी है लेकिन आज हम रूम में मिली 5 बाई 4 की रजाई में ही सो जाते हैं यह सोचकर कि “लाहौल कैसे पहुंचेंगे?” ।
 |
चौरासी मंदिर परिसर में मेले का शुभारम्भ |
 |
चौरासी मन्दिर
|
दिन 01 (भरमौर से गौरी कुण्ड)
हम तड़के 07:30 उठे, अब तक बाबा और बाकी के सभी यात्री गायब हो चुके थे । हम भी बिना कुछ खाए-पिए भरमौर बस स्टैंड पहुंचते हैं जहाँ एक बस मिलती है जो 10:30 चलेगी, गाड़ी में सामान रखकर हम चाय पी लेते हैं और रस्ते के लिए 10 वेज सूप के पैकेट ले लेते हैं । बस का पर-पर्सन किराया 10 रूपये है । रास्ते में भेड़-बकरियों वाले मिलते हैं, ट्रैफिक है, दिल्ली से आये लोग गाड़ियाँ बैक नहीं कर पा रहे हैं । इन सभी डोमेस्टिक समस्याओं का सामना करते हुए बस हड़सर 12:15 पहुंचती है ।
 |
हड़सर |
यहाँ पठानकोट का एक लड़का मिलता है जो हमारे साथ परिक्रमा करना चाहता है लेकिन हमारा प्लान सुनकर वो “भोले आपकी यात्रा सफल करें” बोलकर अपने रास्ते निकल जाता है ।
हड़सर की ऊँचाई 2100 मीटर है और यहाँ रोड़ पे पहाड़ पे, पेड़ों पे, नालों में और बर्फ पे हर जगह सिर्फ मोटरसाइकिलें ही खड़ी, पड़ी और चढ़ी दिखाई दे रही है । नजारा ऐसा है मानो हौंडा के सर्विस सेंटर में आ गये हों । यहाँ से सीधे चले तो कुगती गाँव पहुंच सकते हैं जहाँ से मणिमहेश कैलाश की परिक्रमा शुरू होती है । धन्छो खड्ड जिसे मणिमहेश खड्ड और गहोई खड्ड भी कहा जाता है, के लेफ्ट-राईट से दो रास्ते निकल रहे हैं जो आगे जाकर धन्छो पुल पर मिल जाते हैं ।
5 पार्ले-जी के पैकेट खरीदने के बाद हम एक छोटे से पुलिस चेक पोस्ट से गुजते हैं और आखिरकर अपना दाहिना कदम पहले रखकर यात्रा शुरू करते हैं । उधर ‘पॉप फ्रांसिस’ वेटिकन सिटी में सभी पादरियों को समझाते हैं कि “उन महिलाओं पर दया दिखाओ जिन्होंने अबोर्शन करवाया है”, इधर हमारा बोलना है कि “5 पैकेट पार्ले-जी और 10 पैकेट वेज सूप के काफी होंगे 10 दिन के ट्रेक के लिए” ।
 |
ये बन्दा तो मानो सिर्फ सांप गले मे डालने ही गया था चम्बा |
 |
नारकंडा के सबसे अमीर सेब व्यापारी "नवीन जोगटा" |
हम खड्ड के राईट बैंक वाले रास्ते को चुनते हैं जिसपर चलते हुए थोड़ी ही देर में एक झरने को पार करते हैं । रास्ते बंटा, निम्बू-पानी, ठंडा, सांप और जड़ी-बूटियों के साथ ढ़ेरों बाबा जी बैठे हैं, जगह-जगह ओरेंज शरबत बिक रहा है । अब तक चढ़ाई और धूप अपना असर दिखाने लगी है, नवीन आगे हैं और मेरी जीभ खड्ड में टूटकर बहना चाहती है । तेज धूप में लाहौल पहुंचने का ख्याल नंगे बदन थार मरुस्थल में लेटने जैसा महसूस होने लगता है ।
धन्छो पुल (2715 मी.) से पहले हम डियरी, तोस का गोठ, यम कुण्ड और सोड़ गोठ पार करके दूर लंगर पर नजर गड़ा देते हैं । एक महीने पहले किन्नर कैलाश ट्रैक किया था तब से घर ही पड़ा रहा इसलिए टांगों में फंगस लग गया है । थकावट का आलम ये है कि मन सोने का करने लगा और सांसे रुक-रुक कर ऐसे आ रही थीं जैसे तुरंत दम निकल जायेगा ।
 |
श्रद्धालुओं की लंबी कतारें कैलाश की ओर जाती हुई |
 |
धन्छो पुल |
03:30 धन्छों पहुंचकर हम लंगर में खाना खाते हैं और एक कप गर्मागर्म चाय के बाद खुद को बंदर-घाटी की चढ़ाई के लिए तैयार करते हैं । ब्रेक के बाद नवीन का कहना है ऐसे तो हमें लाहौल पहुंचने में दो जन्म का समय लग जायेगा जिसपर मैं यही कह पाया कि “तुम पहले बॉब मारले बाबा का सम्मान करना सीखो” ।
 |
द लंच |
 |
सामने दिख रही इसी पहाड़ी पे चढ़ना है |
 |
सुना है ये दोनों एक लंबे ट्रैक का प्लान कर रहे हैं? |
धन्छो से तीन रास्ते हैं हम बीच वाली ट्रेल लेते हैं जो बिल्कुल खड़ी है । कैमरा गले में आफत बनकर लटका है जो बार-बार याद दिला रहा है कि ग्रेविटी कभी भी चित्र पे हार चढ़वा सकती है । वनमानुष टाइप हम हाथ-पैरों को पटकटे हुए शाम सात बजे गौरी कुण्ड (4020 मीटर) पहुंचते हैं, यहाँ टैन्टों की कालोनी टाइप है । पिछली बार की तरह इस बार भी लंगर लगे हैं, मैं मुकेरिया की टीम को ढूंढता हूँ जो जल्द ही मिल जाती है । किचेन तम्बू में मुकेश रोटियां बना रहा है, वो देखते ही पहचान लेता है और हम दोनों का भव्य स्वागत करता है अपने तम्बू में ।
 |
गौरीकुण्ड से कैलाश के दर्शन होते हुए |
 |
मुकेश रुमाली रोटियां बनाते हुए |
जब हम दोनों की खातिर होने लगी तो हमने भी शिव-कुण्ड कल के लिए स्थगित कर दिया, अब आज हम यहीं रुकेंगे और कल हम सब मिलकर शिव कुण्ड में स्नान करेंगे । पिछले साल मिले साथियों के बारें में बात होती है, मिठाइयों का दौर लगातार चलता रहता है । बातचीतें रात 11:30 बंद होती है ।
दिन 03 (गौरी कुण्ड से मणिमहेश कुण्ड / डल झील / शिव कुण्ड – 4180 मीटर)
रोटियां बनने की आवाज आने लगी तो हम भी उठ गये, समय 07:25 बताया घड़ी ने, मुकेश और मन्ना रोटियां पका रहे हैं । हम चाय राजमा-रुमाली रोटी खाते हैं । दोनों लौंडों का काम 12 बजे खत्म होता है और सवा 12 हम निकल पड़ते हैं शिव कुण्ड के लिए । कुण्ड हम 22 मिनट में पहुंचते हैं जहाँ हम विक्की से मिलते हैं और सामान उसी के लंगर में रखकर स्नान के लिए निकल पड़ते हैं । अनेकों लोग पहले से ही नहा रहे हैं, धूप खिली हैं इसलिए फटाफट हमने डुबकी का प्रोग्राम बनाया । मन्ना, मुकेश और सेव व्यापारी के बाद मैं नहाता हूँ ।
 |
गौरीकुंड से डल की चढ़ाई |
 |
स्नान कैलाश के आंगन में |
 |
नहाने के बाद भी चेहरे उतने ही खराब दिखे |
सूरज ढल रहा है, कैलाश पर बादलों का कब्जा है...कुछ ही देर में सभी बादलों का रंग सफ़ेद से ओरेंज होता चला जाता है । बादल इस प्रकार कैलाश के सिर पर घूम रहे हैं जैसे उनको बंधकर किसी ने जूड़ा बना दिया हो । डल में कैलाश के दर्शन हो रहे हैं...इस दृश्य को देखकर श्रद्धालु जयकारे लगाते हैं । डल के बहुत ऊपर कुछ लोग हमारी तरफ आते दिखाई दे रहे हैं, वहां ‘सुख डली जोत’ है जोकि 4600 मीटर ऊँचा है जिसका रास्ता रावी किनारे बसे होली गाँव से शुरू होता है, कांगड़ा वासी इसी रास्ते का उपयोग करते हैं कैलाश के दर्शन को वाया जालसू जोत ।
 |
डल में मणिमहेश रेंज की झलक चमकती हुई |
 |
जय मणिमहेश कैलाश |
जैसी आपकी स्पीड मालूम पड़ती है आप लाहौल से आगे चीन तो नहीं पहुंच गए आठवें दिन?
ReplyDeleteसर आप खुद पाक्स्तान क्यों नहीं निकल जाते
Deleteआपने अपनी यात्रा को बहुत अच्छे शब्दों में सांझा किया है हमे आपकी लिखी पोस्ट पढ़ कर ही इतना मज़ा आ रहा है अपने तो फिर यात्रा करी है
ReplyDeleteखच्चर वाली ढुलाई जब भी याद आती है तो लोअर बैक में पैन स्टार्ट हो जाता है
Delete