17 जून 2014
मनाली से डेबरिंग पहुंचने में छह दिन लग गये, घर से निकला तो सोलो ट्रेवलर बनकर था लेकिन रास्ते में मिले तीन साथियों की वजह से ये सफर ग्रुप-सफरिंग में बदल गया । हर रोज बर्फीले नालों को पार करने में जूते अलग भीगते और जींस अलग । सामान बाँधने से हाथों में छाले पड़ गये, ठंडी हवा से चेहरा जलकर भस्मासुर हो गया ।
Day 10 (13 जून 2014, डेबरिंग से कारू)
दुरी 92 किमी, साइकिल पर समय लगा 11:50 घंटे, एलेवेश्न गेन 864 मीटर, (डेबरिंग एलेवेश्न 4636 मीटर, कारू एलेवेश्न 3435 मीटर, खर्चा 498 रूपये)
परसों लेह पहुंचने के विचार ने जादुई असर किया, अर्थात पिछवाड़े के दर्द को डिस-इल्युजेनेट कर दिया । कल रात हुई बातचीत में मुझे उप्शी ज्यादा दूर लगा जबकि रुमसे अपनी पकड़ में महसूस हुआ लेकिन हिंदीभाषी की माने कौन? । 07:25 पर निकलते हैं अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर, सामान को साइकिल पर बांधना मेरे लिए सबसे ज्यादा दुखद क्षण रहा वहीँ इस मामले में योगेश सबसे ज्यादा फायदे में रहा क्योंकि उसके पास साइकिल के प्रॉपर पेनियर बैग हैं ।
लेह जाते हुए हाईवे के दाहिने साइड में एक जंक्शन है जिसका नाम मंगजुल है, यहाँ से रास्ता ‘त्शोकर झील’ (4530 मी.) के लिए निकलता है जोकि डेबरिंग से लगभग 22 किमी. दूर है । और अगर वहां से आगे जाएँ तो त्शो मोरिरी होते हुए पैंगोंग लेक पहुंचा जा सकता है, जहाँ से लेह सिर्फ 160 किमी. रह जाता है । मजे की बात है कि तीनों ही झीलें नमकीन पानी की झीलें हैं । डेबरिंग के आखिरी टेंट के बाद एक रास्ता लेफ्ट साइड को सीधा पदुम जाता है । डेबरिंग को स्थानीय भाषा में रोक्छैन कहा जाता है और इसी नाम से यहाँ एक पीक भी है जिसकी ऊँचाई 5820 मीटर है, साल 2016 में अपुन इसके समिट कैंप (5300 मीटर) तक गया था ।
चाय-पराठे के बाद हम मनाली-लेह हाईवे के आखिरी पास ‘तंगलंग-ला’ के लिए निकलते हैं । साफ़ मौसम का पीछा करते हुए मैं सबसे पीछे चल रहा हूँ और अचानक आखिरी ढाबे पर रूककर भेड़ की ऊन से बने दस्ताने खरीदता हूँ, 150 में जोड़ा हाथ लग जाता है । कुछ एक किमी. के बाद टूटा रास्ता स्टार्ट हो जाता है, बीआरओ वाले बताते हैं ये रास्ता पास तक ऐसे ही है और अच्छा रास्ता आपको पास के बाद ही मिलेगा । साइकिल चल रही है या नहीं कह पाना मुश्किल है, तीनों मुझसे आगे हैं और मैं साइकिल से भी पीछे ।
सामने के पहाड़ पर सड़क एक लम्बी लाइन के रूप में दिखाई दे रही है, “वहां जाना है” सोच-सोचकर ही उबकाई आ रही है । यहाँ से ‘तंगलंग पीक’ भी दिखाई दे रही है जिसकी ऊँचाई 5760 मीटर है । साइकिल चौथे गियर से नीचे ही नहीं जा रही है, कुछ फाल्ट हुआ है । बड़े गियर पर साइकिल नहीं चला पाने के कारण मैं उतरकर चलने लगता हूँ, अब तेज हवा और उड़ती धूल को महसूस कर रहा हूँ । नजरें दौड़ाता हूँ लेकिन तीनों का कोई अता-पता नहीं, कांपती टांगों को देखकर मुझे जींस पर गुस्सा आ रहा है । अब तक मैं मन बना चुका हूँ कि आर्मी-ट्रक से पास तक लिफ्ट मांग लूँगा, लेकिन बदनसीबी देखो सिर्फ एक ही ट्रक आया जिसमें पीछे बैठे जवानों ने अंगूठा दिखाकर मेरे बचे-खुचे मोरल का भी मोर बना दिया ।
11:30 बजे तीनों मिलते हैं यहाँ से पास 16 किमी. रह गया है, ड्राई-फ्रूट्स खाते हुए तीनों इंग्लिश में बातें करते हैं, मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर भी मैंने मन-ही-मन यह मान लिया कि ये लोग कहना चाहते हैं कि “क्या पास से पहले ही ये मर जायेगा?” । चौथे गियर में इस ऊँचाई पर साइकिल चलाना आत्महत्या करने जैसा है । इस पास ने क्रोस करने से पहले ही मेरी आत्मा को चूस लिया, मैं फिर से साइकिल से उतरकर चलने लगता हूँ और थोड़ी ही देर में बर्फ़बारी भी शुरू हो जाती है, पहाड़ मानो बोल रहे हों “तुझे तो लेकर ही जायेंगे” ।
12:30 हम पास से 08 किमी. पहले रुककर डेबरिंग से पैक कराए पराठे खाते हैं, मैं आधा भी नहीं खा पाता उबकाई आ जाती है जिसके बाद तीनों मुझे ऐसे देखते हैं जैसे कहना चाहते हो “अबे कब मरेगा तू?” । जब चलना शुरू किया तो मुझे अच्छा लगने लगा क्योंकि अब तक बाकी तीनों जल्लाद भी थक कर डेड हो चुके हैं । मैं पीछे-पीछे चल रहा हूँ और पास के बाद आने वाले डाउन हिल के बारे में सोच-सोचकर ही अपुन को धक-धक होरेला है ।
02:00 बजे, पास से करीबन 200 मीटर पहले एक साइकिलिस्ट मिलता है जोकि श्रीनगर से आ रहा है । भाई का नाम साविद है, और इंगलैंड का रहने वाला है, मां इंडियन और बाप ब्रिटिश है, इसने साइकिलिंग जर्मनी से शुरू करी और अब तक 20,000 किमी. साइकिल चला चुका है । हम सभी इस महान आत्मा को हाथ जोड़कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं । वैसे मैं जानना चाहता हूँ कि “क्या उसके पिछवाड़े इस्पात के बने हैं?, जिसे मैं अंग्रेजी की कमी के कारण नहीं पूछ पाया ।
02:30 पर हम मनाली-लेह हाईवे के आखिरी पास ‘तंगलंग-ला’ पर खड़े हैं, तेज हवाओं ने हमारा स्वागत किया जबकि बर्फ़बारी ने अभी तक पीछा नहीं छोड़ा । 5319 मीटर पर बने सर्व-धर्म मंदिर और झंडों को देखते ही पुरे शरीर में मानो नई ऊर्जा का संचार हो जाता है, यहाँ मैं तीनों को चिल्लाकर “यु आल गो टू हेल” कहना चाहता हूँ लेकिन टपकती नाक और कांपती टांगों के कारण नहीं कह पाता । सभी ने फटाफट एक छोटा सा फोटो सेशन किया और एक टूरिस्ट से अपनी ग्रुप फोटो खिंचाकर हम निकल पड़ते हैं सबके फेवरेट डाउन हिल की ओर ।
अगर मौसम साफ हो तो तंगलंग-ला पर खड़े होकर नार्थ-वेस्ट दिशा में देखने पर जितनी भी पीक दिखाई देती हैं सभी छह हजार मीटर से ऊपर हैं जिनमें ग्याम्शु पीक (6030 मी.) भी शामिल है ।
एक-दो किमी. के बाद बर्फ की ऊँची-ऊँची दीवारें समाप्त हो जाती हैं और ताजा बना रोड़ स्टार्ट हो जाता है । पास से रुमसे की दुरी 32 किमी. है जिसे तय करने में हम मात्र 45 मिनट का समय लेते हैं । मैंने अपने जीवनकाल में इतनी तेज साइकिल कभी नहीं चलायी, सच बताऊँ को तीनों को तेज भागते हुए देखकर मेरे भी भीतर का नीनो-शटर जाग जाता है ।
रुमसे रुककर हम गर्मागर्म चाय के साथ बचे हुए पराठे खाते हैं । तीनों को अंग्रेजी में बात करते देख मैं समझ जाता हूँ कि “खाप पंचायत का फतवा कुछ ही पलों में आने वाला है” । अब तक के डाउन हिल और स्थानीय अंकिल के बयान के अनुसार “लेह तक पूरा डाउन हिल है” को मध्यनजर रखते हुए मैं खाप पंचायत का फैसला सर-माथे से लगाता हूँ और हम उप्शी के लिए निकल जाते हैं जोकि यहाँ से मात्र 26 किमी. दूर है ।
रुमसे से आगे बढ़ते ही पहाड़ वो रंग दिखाते हैं जो आजतक मैंने किसी पहाड़ पर नहीं देखें, लाल, हरा, सफेद, ग्रे, ब्राउन आदि रंग देखकर दिल खुश हो जाता है । रंगों के साथ-साथ हम कुछ बेहद खुबसूरत गांवों को क्रोस करते हैं जिनमें मुख्य ससोमा, लाटो, मेरु और गया रहे । रोंग नामक गाँव के एक पैदल रास्ता मरखा निकलता है, जहाँ पहुंचने में तीन पास क्रोस करते पड़ते हैं । मेरु गाँव से पैदल चलकर स्टोक कांगड़ी पीक के बेस कैंप पहुंचा जा सकता है । मेरु में ख्याम्मर नदी में फुयल स्ट्रीम मिलता है जोकि मेरु पीक (5350 मी.) से आता है और आगे जाकर उप्शी में ख्याम्मर नदी इंडस नदी में मिलती है ।
04:20 निकलते हैं और स्थानीय अंकिल की बात सच सिद्ध होती है, यहाँ तक सारा रास्ता डाउन मिलता है । उप्शी स्थित चेक पोस्ट पर हमारी डिटेल्स नोट होती हैं, बाकी पर्यावरणवाद से प्रभावित होकर दो स्थानीय महिलाएं पर्ची काट रही हैं शुक्र है हम अपनी कंगाली का उलाहना देकर बच निकलते हैं । उप्शी में जितने लोग मिले उतने ही ट्रक और गाड़ियाँ, इतनी भीड़ में टेंट लगाने की जगह न मिल पाने के कारण खाप पंचायत का अगला फतवा यह है कि “चलो कारू” । यह दुरी 14 किमी. है और डाउन हिल के लालच में सभी फिर से साइकिलों पर आ जाते हैं बस एक मैं ही अब बेमन पैडल मारता हूँ ।
यह कोई डाउन हिल नहीं है, सारे रास्ते साइकिल को छोटे गियर पर ही चलाना पड़ा । यह 14 किमी. जी का जंजाल बन जाता है, अत्यंत दुखों का सामना करके हम कारू पहुंचते हैं । रोशनी जाने में कुछ ही समय बचा है लेकिन यहाँ तो कहीं भी कोई जगह नहीं दिखती टेंट पिच करने को तो हम एक रूम में रुकने का तय करते हैं लेकिन 200 रूपये प्रति बेड के ऑफर को छोड़कर हम होटल वाले को समझाते हैं कि “भाई/सर/महोदय इतना पैसा होता तो साइकिलिंग थोड़े करते गाड़ी से आते, आप ये बताओ कि होटल की पार्किंग में टेंट लगा लें?” ।
वो हमारे जले हुए चेहरों को देखता है और यह बोलकर परमिशन दे देता है कि “सुबह जल्दी उठ जाना नहीं तो स्कूल बस कुचल देगी चारों को टेंट समेत” । सभी एक साथ हाँ में गर्दन हिलाते हैं । 09:30 बजे टेंट पिच होता है फिर बिना समय गवाएं सभी शानदार पेटभर डिनर करके रात 10:30 बजे अपने-अपने स्लीपिंग बैग में डेड हो जाते हैं ।
कारू से रास्ता सीधा पैंगोंग जाता है जोकि यहाँ से लगभग 110 किमी. दूर है, जहाँ तक पहुंचने के लिए चांग-ला क्रोस करना पड़ता है । आज का दिन बहुत लम्बा रहा, थैंक्स टू खाप पंचायत, 92 किमी. दुरी तय करने के बाद घुटनों और पिछवाड़े किसमें ज्यादा दर्द है यह बता पाना मुश्किल टास्क बन गया ।
Day 11 (14 जून 2014, कारू से लेह)
दुरी 35 किमी, साइकिल पर समय लगा 01:30 घंटे, एलेवेश्न गेन 249 मीटर, (कारू एलेवेश्न 3435 मीटर, लेह एलेवेश्न 3557 मीटर, खर्चा 90 रूपये)
तड़के चारों दो टेंटों में मजे से सोये थे कि तभी एक स्कूल बस ने पार्किंग में आकर सबको गुड मोर्निंग बोल दिया । सबके वनमानुष जैसे चेहरों पर कोई भाव नहीं है, मशीनी तरीके से हम टेंट पैक करते हैं और 08:30 हम नाश्ते के लिए निकलते हैं । यह प्लान है कि नाश्ता यहीं करेंगे क्योंकि यहाँ खाना टेस्टी है जैसाकि कल रात खाया था । आलू के पराठे और दही के साथ मजेदार नाश्ता करते हैं, आज सिर्फ 35 किमी. की दुरी ही तय करनी है इसलिए हमें निकलते-निकलते 10 बज जाते हैं । टेस्टी पराठों का नशा बदन के असहनीय दर्द को भुला देता है ।
घाटी के इस हिस्से में हरियाली, इंडस नदी और स्टोक रेंज को देखकर बहुत सुकून मिल रहा है, आज योगेश और सनोज एक साथ चल रहे हैं जबकि मैं और धनुष जोड़े में हैं । अब तक हम चारों आपस में काफी खुल चुके हैं, मल्लू लौंडे मुझसे बात करते हुए हिंदी बोलने पर जोर दे रहे हैं जबकि मैं दुनिया की सबसे बुरी अंग्रेजी बोलकर उन्हें यह दिखाने पर तुला हूँ कि “तुम्हें हिंदी बोलने की जरूरत नही है मुझे इंग्लिश आती है” ।
रास्ते में थिकसे मोनस्ट्री, शे पैलेस और चोगलमसर स्थानों को क्रोस करते हैं । गर्मी की तीव्रता को देखते हुए हम जैकेट उतार फैंकते हैं और चोगलमसर में आइस-क्रीम का लुत्फ उठाते हैं । चोगलमसर से एक रास्ता स्टोक गाँव के लिए जाता हैं जहाँ से आगे स्टोक कांगड़ी पीक तक जाया जा सकता है । चोगलमसर के बाद रास्ता टूटा मिलता है, यहाँ से लेह कुछ ही किमी. रह जाता है । चारों तरफ गाड़ियाँ, धूल, हॉर्न और पब्लिक है, इतने दिनों से हमने लेह को इस रूप में बिलकुल भी नही सोचा था ।
11:30 हम लेह पहुंच जाते हैं, जहाँ पहुंचकर चारों जितने खुश होते हैं उतने ही कन्फ्यूज्ड भी । “अब कहाँ जाना है?, कहाँ रुकना है?”, जैसे सवाल सबके माथे पर उभर आते हैं । स्थानियों ने हमें खूब डराया कि लेह तो बहुत महंगा है, और हम खुद भी उनकी बात का समर्थन करते हैं । आज भी टेंट लगा सकते हैं लेकिन गर्म पानी से नहाने का लालच हमें सोचने पर मजबूर कर रहा है ।
योगेश इस हालात से सभी को बाहर निकालता है, वो अपने मौसा जी को बोलकर हमारे लिए लेह एअरपोर्ट रोड़ पर आर्मी गेस्ट हाउस में एक रूम बुक करा देता है । फोन पर आर्मी वाले हमें वहीँ रुकने को बोलते हैं, लगभग डेढ़ घंटे इंतजार के बाद एक आर्मी जिप्सी हम जिप्सियों को लेने आती है, अब उनकी गाड़ी हमारे आगे चल रही है और चारों साइकिलें पीछे । रास्ता उतराई वाला है जिसे सोच-सोचकर मैं थूक सटक रहा हूँ कि अगर वहाँ रूम नहीं मिलता तो इस चढाई को कैसे चढूँगा? ।
02:30 बजे हम सारे पेपर-वर्क के बाद रूम में आ जाते हैं जहाँ हम पर दुनिया में जितने नियम हैं सभी लागू कर दिए जाते हैं । दरअसल आज यहाँ कोई पार्टी है इसलिए हम रूम से बारह नहीं जा सकते, फोटो नहीं खिंच सकते, टीवी ऊँची आवाज में नहीं चला सकते, ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकते । ब्रिगेडियर या कर्नल एक असिस्टेंट नियुक्त कर देता है हमारे लिए जिसका नाम नवीन है, जो ध्यान रखेगा कि हम हर नियम को मानें ।
चारों अपने-अपने घरवालों को अपने कुशल-मंगल पहुंचने की सूचना देने के बाद एक-एक करके सब नहाते हैं और योगेश को छोड़कर सभी ने बाथरूम की नाली को अपने लम्बे बालों से ब्लाक कर दिया है । बाथरूम में चार इंच पानी भर जाने के बाद सभी को ब्रिगेडियर की गोली का डर सताने लगता है ।
नवीन हमारे लिए ब्रेड टोस्ट ले आता है चाय के साथ जिसे हम भूखे भेडियों की तरह पल-भर में चट कर देते हैं । सबकुछ खा लेने के बाद भी हम भूखे हैं इसलिए हम अपने साथ लाए पारले-जी बिस्कुट खाते हैं जैम के साथ । रात को बाहर पार्टी चलती है और भीतर हम आठ बजे डिनर कर लेते हैं । सभी देर रात 11:30 बजे सोते हैं ।
अच्छा सोने से पहले चारों वोटिंग करते हैं कि “जो साइकिल से खारदुंग-ला जाना चाहता है हाथ उठायें”, मकरों की तरह कोई हाथ नहीं उठाता । फिर दुसरा पोल होता है जिसमें सवाल है कि “बुलेट पर कौन-कौन पेंगोंग लेक’ जायेगा?”, सभी एक साथ ‘डुग-डुग-डुग’ बोलकर इस प्रस्ताव को पूर्ण बहुमत देते हैं ।
आज कारू से लेह तक सिर्फ 35 किमी. की साइकिलिंग होती है, और आज का कुल खर्चा 90 रूपये रहा ।
Day 12 (15 जून 2014, लेह-खारदुंग-ला ट्रिप मोटरबाइक से)
दुरी 40 किमी, मोटरबाइक पर समय लगा 04 घंटे, एलेवेश्न गेन 2504 मीटर, (लेह एलेवेश्न 3557 मीटर, खारदुंग-ला एलेवेश्न 5359 मीटर, खर्चा 1292 रूपये)
ये गेस्ट हाउस 17 जून की सुबह तक हमारे लिए बुक है । रूम से किसी ब्रिगेडियर की बिगड़ी औलाद टाइप 09:30 बजे निकलते हैं और बाहर से 20 रूपये देकर लेह मार्किट पहुंचते हैं । बाजार में किराये के लिए तमाम तरह की मोटरबाइक उपलब्ध हैं और सभी का अलग-अलग किराया है । जितना ज्यादा सीसी (CC) उतना ज्यादा किराया । हमारे एक दिन में पैंगोंग जाकर वापस आने वाले प्लान को सुनकर कोई भी हमें बाइक देने को तैयार नहीं है, फिर यह भी कंडिशन सामने आती है कि सिर्फ एक दिन के लिए बाइक किराये पर नही मिलेगी, कम-से-कम दो दिन का किराया तो देना ही होगा ।
तो अंग्रेजी, हिंदी और अंग्रेजी में अजीबो-गरीब बहस के बाद हम दो इम्पल्स लेते हैं फॉर टू डेज । प्रति बाइक हम 700 रूपये चुकाते हैं जिसमें पेट्रोल और फिजिकल टूट-फूट हमें भुगतनी होगी जैसी शर्तों पर दस्तखत करके हम पेट्रोल पंप पहुंच जाते हैं तेल भरवाने ।
दोनों बाइकों में 1700 रूपये का तेल डलता है । पेट्रोल पंप पर तीनों भाषाओँ के प्रतिनिधि अपना-अपना मत रखते हैं जिसके बाद परिणाम यह निकलता है कि “पहले खारदुंग-ला जायेंगे फिर पेंगोंग झील” । पौने ग्यारह बजे हम खारदुंग पास के लिए निकल पड़ते हैं । मोटरबाइक पर बैठना साइकिल चलाने के मुकाबले कहीं ज्यादा आरामदायक है । पुरे रास्ते भर मैं सिर्फ फोटो ही खींचता रहा, कुछ किमी. बाद कहीं लैंड स्लाइड हुआ है जिसके लिए आधा घंटा इंतजार करना पड़ता है ।
26 किमी. बाद साउथ पुल्लू स्टेशन आता है जहाँ सभी फोर व्हीलर और टू व्हीलर की एंट्री होती है । रास्ते में कुछ जाबाज़ मिलते हैं जो साइकिल से खारदुंगला जा रहे हैं, इनके आलावा दो सनकी-क्रेजी गायस भी मिलते हैं जो पैदल ही पास तक जा रहे हैं । कुछ साइकिलिस्ट रोड़ के साइड में बैठे हैं या चल बसे हैं कह पाना मुश्किल है जबकि कुछ लिफ्ट मांगते दिखाई देते हैं जिनके प्रति मैं सहानुभूति प्रकट करता हूँ ।
01:30 हम दुनिया का सबसे ऊँचा कहे जाने वाले मोटरेबल रोड़ पर पहुंचते हैं, यहाँ धुंआ, बर्फ, ठण्ड, साइकिलें, पड़ी हुई उल्टियाँ, जोर-जोर से साँस लेते लोग और बेहोश होते हुए सिटी पीपल हैं । “हाईऐस्ट मोटरेबल रोड़ इन द वर्ल्ड” वाले बोर्ड को पब्लिक ने ऐसे घेर रखा है जैसे वहां से ऑक्सीजन और गर्म भाप निकल रही हो । हमारा नम्बर तकरीबन 20 मिनट बाद आता है, फोटो खींचने के बाद चारों का एक साथ कहना है “मूड ऑफ हो गया यहाँ आकर” ।
भूख लगती है तो पास ही के एक कैंटीन में हम चाय-बिस्कुट खाकर वापस हो लेते हैं । बैक-टू-बैक मिली निराशाओं को मध्यनजर रखते हुए हम रास्ते में ही पेंगोंग झील न जाने का फैसला लेते हैं । मोटर-साइकिलों को आज ही वापस कर देंगे जबकि तेल को निकालर किसी को बेच देंगे । तो इस माइंड-सेट के साथ लेह हम 03:35 पहुंचते हैं । दूध-केले लेकर रूम पर पहुंचते हैं जहां से वापस मार्किट निकल जाते हैं । हम उसी बस वाले को पेट्रोल बेच देते हैं जिस बस से हमने श्रीनगर जाना तय किया है ।
11 लीटर पेट्रोल वो 700 रूपये में लेता है, लेह से श्रीनगर बस का किराया 1058 रूपये है प्लस 300 रूपये प्रति साइकिल । हमारा प्लान 17 जून को श्रीनगर निकलने का है लेकिन 16 जून के बाद सभी गाड़ियाँ 33वे कालचक्र पूजा में व्यस्त रहेंगी इसलिए हमें कल ही निकलना होगा । बस की टिकट बुक कराने के बाद दोनों मोटरबाइक को वापस करने पर 700 रूपये का रिफंड मिलता है ।
Day 13 (16 जून 2014, लेह-श्रीनगर)
दुरी 390 किमी, बस से समय लगा 10 घंटे, एलेवेश्न गेन 5769 मीटर, (लेह एलेवेश्न 3557 मीटर, श्रीनगर एलेवेश्न 1585 मीटर, खर्चा 2615 रूपये)
मनाली से लेह के बीच इतना खर्चा नही हुआ जितना यहाँ आर्मी गेस्ट हाउस में हो गया, टोटल 4300 रूपये चुकाकर हम सबको बर्बाद होने की फिलिंग आने लगी । सारे साजो-सामान के साथ सबसे पहले हम टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर जाते हैं जहाँ विश्व का सबसे घटिया मैप मिलता है फिर लेह बस अड्डे पर जाकर श्रीनगर जाने वाली बस की छत पर चारों साइकिलों को बांध देते हैं ।
बस दोपहर 02 बजे चलती है और जल्दी ही ‘पत्थर साहिब गुरूद्वारे’ को क्रोस करती है । 53 किलो. से जब वजन 45 किलो पर आ जाये तो शरीर ध्रुवीय भालू की भांति छह महीने के लिए हाईब्रनेशन मोड़ में जाना चाहता है तो इसी मोड़ के तहत मैं सो गया, बीच-बीच में आँख खुली लेकिन उतनी ही जल्दी बंद भी हो गयी । शाम 07:30 हम लोग कारगिल उतरकर डिनर करते हैं जहाँ प्रति-व्यक्ति 95 रूपये का खाना मिलता है ।
Day 14 (17 जून, कारगिल – श्रीनगर)
दुरी 199 किमी, बस से समय लगा 14 घंटे, एलेवेश्न गेन 2400 मीटर, (कारगिल एलेवेश्न 2819 मीटर, श्रीनगर एलेवेश्न 1585 मीटर, खर्चा 120 रूपये)
बस 08:30 चलती है जिसके बाद अनमने ढंग से थोड़ी बातचीत करके मैं फिर से सो जाता हूँ फिर आँख सीधा सुबह 06:30 खुलती हैं । रोड़ किनारे लगे बोर्ड बताते हैं कि हम सोनमर्ग क्रोस कर रहे हैं । बस कंगन रूकती है जहाँ सब लोग नाश्ता करते हैं, चाय वाले से पूछते हैं कि श्रीनगर कितना दूर है जिसपर उसका बोलना है एक घंटे से पहले पहुंच जाओगे । यहीं कहीं से कश्मीर ग्रेट लेक्स का ट्रेक भी शुरू होता है, देखो कब मौका मिलता है जाने का ।
09:30 बजे हम हिन्दोस्तान की सबसे खुबसूरत घाटी कश्मीर में खड़े हैं, जल्द ही साइकिलों के साथ बाकी के सामान को बस की छत से उतारकर चारों सीधा ही टूरिस्ट इनफार्मेशन सेण्टर जाते हैं जहाँ से 10 रूपये का मैप खरीदते हैं और एक अंकिल को बोलकर अपने सारे सामान को वहीं एक रूम में रखवा देते हैं...जिसका 100 रूपये किराया वसूलते हैं वो हमसे ।
अब वक्त टशन दिखाने का है, हम चारों साइकिल से डल लेक का चक्कर लगाते हैं, फिर नेहरु गार्डन घूमते हैं । लंच करके हम सीधा टैक्सी स्टैंड पहुंचे जहां 600 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से हम उधमपुर तक के लिए अपनी टिकट बुक करा लेते हैं । शाम 5 से पहले चारों साइकिल्स को टवेरा की छत पे बांधकर हम निकल पड़ते हैं घर वापसी की ओर ।
Day 15 (18 जून 2014, श्रीनगर से उधमपुर)
दुरी 192 किमी, तवेरा से समय लगा 09:30 घंटे, एलेवेश्न गेन 4463 मीटर, (श्रीनगर एलेवेश्न 1585 मीटर, उधमपुर एलेवेश्न 655 मीटर, खर्चा 1193 रूपये)
सुबह के तीन बजे थे या चार अब याद नहीं लेकिन जो याद है वो ये कि अँधेरे में साइकिल को असेम्बल करने में हमारे हाथ जरुर काले हो गये हैं । उधमपुर चौक से उधमपुर रेलवे स्टेशन कुछ ही मिनटों में पहुंच जाते हैं । गेट पर मिले गार्ड ने बताया कि स्टेशन में एंट्री 6 बजे होगी इसलिए हम पार्किंग में ही सो गये करीबन दो घंटे के लिए ।
सबसे पहली ट्रेन दिल्ली के लिए 07:45 पर जा रही थी लेकिन लगेज ऑफिस 8 बजे खुलना था इसलिए हम दोपहर 02:45 वाली ट्रेन का जर्नल टिकट कटाते हैं जोकि 165 रूपये है पर पर्सन । लगेज ऑफिस में बात करके चारों साइकिलों को बुक करा देते हैं जिनका 130 रूपये प्रति साइकिल चार्ज लगता है । इस सबके बाद बारिश शुरू हो जाती है जिसके बाद हम मौसम ठंडा हो जाता है, ट्रेन छूटने से पहले हम दो से तीन बार खाना खा चुके हैं ।
ट्रेन यहीं से बनकर चलती है इसलिए सीट मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई । हमारे तीन गांवों जितने सामान को देखते हुए लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी है कि “इन सज्जनों को क्या दिक्कत है भई” । जम्मू के बाद टनों की संख्या में सवारियां चढ़ी और जहां पहले हम एक सीट पर चार लोग बैठे थे वहीँ अब सात हो गये हैं । गर्मी बढ़ गयी है जिससे साँस रुक रूककर आ रही है । सवारियों के पसीने की बदबू के कारण मैं बेहोश हो जाता हूँ ।
Day 16 (19 जून 2014, उधमपुर से फरीदाबाद)
योगेश उठाता है और बोलता है कि उठ जा भाई दिल्ली आ गये हैं, घड़ी समय सुबह के 05:45 दिखाती है । जल्द ही हम साइकिल अपने कब्जे में लेते हैं और तीन गांवों का सामान साइकिल पर बांधकर रेलवे स्टेशन से बाहर आ जाते हैं जहाँ इस ट्रिप की आखिरी चाय पीकर चारों अपने-अपने घरों के लिए रवाना होते हैं ।
मनाली से डेबरिंग पहुंचने में छह दिन लग गये, घर से निकला तो सोलो ट्रेवलर बनकर था लेकिन रास्ते में मिले तीन साथियों की वजह से ये सफर ग्रुप-सफरिंग में बदल गया । हर रोज बर्फीले नालों को पार करने में जूते अलग भीगते और जींस अलग । सामान बाँधने से हाथों में छाले पड़ गये, ठंडी हवा से चेहरा जलकर भस्मासुर हो गया ।
मनाली-लेह साइकिलिंग ट्रिप 2014 |
Day 10 (13 जून 2014, डेबरिंग से कारू)
दुरी 92 किमी, साइकिल पर समय लगा 11:50 घंटे, एलेवेश्न गेन 864 मीटर, (डेबरिंग एलेवेश्न 4636 मीटर, कारू एलेवेश्न 3435 मीटर, खर्चा 498 रूपये)
परसों लेह पहुंचने के विचार ने जादुई असर किया, अर्थात पिछवाड़े के दर्द को डिस-इल्युजेनेट कर दिया । कल रात हुई बातचीत में मुझे उप्शी ज्यादा दूर लगा जबकि रुमसे अपनी पकड़ में महसूस हुआ लेकिन हिंदीभाषी की माने कौन? । 07:25 पर निकलते हैं अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर, सामान को साइकिल पर बांधना मेरे लिए सबसे ज्यादा दुखद क्षण रहा वहीँ इस मामले में योगेश सबसे ज्यादा फायदे में रहा क्योंकि उसके पास साइकिल के प्रॉपर पेनियर बैग हैं ।
लेह जाते हुए हाईवे के दाहिने साइड में एक जंक्शन है जिसका नाम मंगजुल है, यहाँ से रास्ता ‘त्शोकर झील’ (4530 मी.) के लिए निकलता है जोकि डेबरिंग से लगभग 22 किमी. दूर है । और अगर वहां से आगे जाएँ तो त्शो मोरिरी होते हुए पैंगोंग लेक पहुंचा जा सकता है, जहाँ से लेह सिर्फ 160 किमी. रह जाता है । मजे की बात है कि तीनों ही झीलें नमकीन पानी की झीलें हैं । डेबरिंग के आखिरी टेंट के बाद एक रास्ता लेफ्ट साइड को सीधा पदुम जाता है । डेबरिंग को स्थानीय भाषा में रोक्छैन कहा जाता है और इसी नाम से यहाँ एक पीक भी है जिसकी ऊँचाई 5820 मीटर है, साल 2016 में अपुन इसके समिट कैंप (5300 मीटर) तक गया था ।
चाय-पराठे के बाद हम मनाली-लेह हाईवे के आखिरी पास ‘तंगलंग-ला’ के लिए निकलते हैं । साफ़ मौसम का पीछा करते हुए मैं सबसे पीछे चल रहा हूँ और अचानक आखिरी ढाबे पर रूककर भेड़ की ऊन से बने दस्ताने खरीदता हूँ, 150 में जोड़ा हाथ लग जाता है । कुछ एक किमी. के बाद टूटा रास्ता स्टार्ट हो जाता है, बीआरओ वाले बताते हैं ये रास्ता पास तक ऐसे ही है और अच्छा रास्ता आपको पास के बाद ही मिलेगा । साइकिल चल रही है या नहीं कह पाना मुश्किल है, तीनों मुझसे आगे हैं और मैं साइकिल से भी पीछे ।
टूटा रास्ता तंगलंग ला की तरफ |
सामने के पहाड़ पर सड़क एक लम्बी लाइन के रूप में दिखाई दे रही है, “वहां जाना है” सोच-सोचकर ही उबकाई आ रही है । यहाँ से ‘तंगलंग पीक’ भी दिखाई दे रही है जिसकी ऊँचाई 5760 मीटर है । साइकिल चौथे गियर से नीचे ही नहीं जा रही है, कुछ फाल्ट हुआ है । बड़े गियर पर साइकिल नहीं चला पाने के कारण मैं उतरकर चलने लगता हूँ, अब तेज हवा और उड़ती धूल को महसूस कर रहा हूँ । नजरें दौड़ाता हूँ लेकिन तीनों का कोई अता-पता नहीं, कांपती टांगों को देखकर मुझे जींस पर गुस्सा आ रहा है । अब तक मैं मन बना चुका हूँ कि आर्मी-ट्रक से पास तक लिफ्ट मांग लूँगा, लेकिन बदनसीबी देखो सिर्फ एक ही ट्रक आया जिसमें पीछे बैठे जवानों ने अंगूठा दिखाकर मेरे बचे-खुचे मोरल का भी मोर बना दिया ।
11:30 बजे तीनों मिलते हैं यहाँ से पास 16 किमी. रह गया है, ड्राई-फ्रूट्स खाते हुए तीनों इंग्लिश में बातें करते हैं, मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर भी मैंने मन-ही-मन यह मान लिया कि ये लोग कहना चाहते हैं कि “क्या पास से पहले ही ये मर जायेगा?” । चौथे गियर में इस ऊँचाई पर साइकिल चलाना आत्महत्या करने जैसा है । इस पास ने क्रोस करने से पहले ही मेरी आत्मा को चूस लिया, मैं फिर से साइकिल से उतरकर चलने लगता हूँ और थोड़ी ही देर में बर्फ़बारी भी शुरू हो जाती है, पहाड़ मानो बोल रहे हों “तुझे तो लेकर ही जायेंगे” ।
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(फोटो: Dhanush k Dev) वापस जाएँ या लिफ्ट मांग लें जैसे ख्याल आना हाई एलटी का कारण माना जाएगा |
12:30 हम पास से 08 किमी. पहले रुककर डेबरिंग से पैक कराए पराठे खाते हैं, मैं आधा भी नहीं खा पाता उबकाई आ जाती है जिसके बाद तीनों मुझे ऐसे देखते हैं जैसे कहना चाहते हो “अबे कब मरेगा तू?” । जब चलना शुरू किया तो मुझे अच्छा लगने लगा क्योंकि अब तक बाकी तीनों जल्लाद भी थक कर डेड हो चुके हैं । मैं पीछे-पीछे चल रहा हूँ और पास के बाद आने वाले डाउन हिल के बारे में सोच-सोचकर ही अपुन को धक-धक होरेला है ।
02:00 बजे, पास से करीबन 200 मीटर पहले एक साइकिलिस्ट मिलता है जोकि श्रीनगर से आ रहा है । भाई का नाम साविद है, और इंगलैंड का रहने वाला है, मां इंडियन और बाप ब्रिटिश है, इसने साइकिलिंग जर्मनी से शुरू करी और अब तक 20,000 किमी. साइकिल चला चुका है । हम सभी इस महान आत्मा को हाथ जोड़कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं । वैसे मैं जानना चाहता हूँ कि “क्या उसके पिछवाड़े इस्पात के बने हैं?, जिसे मैं अंग्रेजी की कमी के कारण नहीं पूछ पाया ।
साविद |
02:30 पर हम मनाली-लेह हाईवे के आखिरी पास ‘तंगलंग-ला’ पर खड़े हैं, तेज हवाओं ने हमारा स्वागत किया जबकि बर्फ़बारी ने अभी तक पीछा नहीं छोड़ा । 5319 मीटर पर बने सर्व-धर्म मंदिर और झंडों को देखते ही पुरे शरीर में मानो नई ऊर्जा का संचार हो जाता है, यहाँ मैं तीनों को चिल्लाकर “यु आल गो टू हेल” कहना चाहता हूँ लेकिन टपकती नाक और कांपती टांगों के कारण नहीं कह पाता । सभी ने फटाफट एक छोटा सा फोटो सेशन किया और एक टूरिस्ट से अपनी ग्रुप फोटो खिंचाकर हम निकल पड़ते हैं सबके फेवरेट डाउन हिल की ओर ।
(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) आखिरकार तंगलंग ला |
ग्रुप फोटो मनाली-लेह हाईवे पर |
अगर मौसम साफ हो तो तंगलंग-ला पर खड़े होकर नार्थ-वेस्ट दिशा में देखने पर जितनी भी पीक दिखाई देती हैं सभी छह हजार मीटर से ऊपर हैं जिनमें ग्याम्शु पीक (6030 मी.) भी शामिल है ।
एक-दो किमी. के बाद बर्फ की ऊँची-ऊँची दीवारें समाप्त हो जाती हैं और ताजा बना रोड़ स्टार्ट हो जाता है । पास से रुमसे की दुरी 32 किमी. है जिसे तय करने में हम मात्र 45 मिनट का समय लेते हैं । मैंने अपने जीवनकाल में इतनी तेज साइकिल कभी नहीं चलायी, सच बताऊँ को तीनों को तेज भागते हुए देखकर मेरे भी भीतर का नीनो-शटर जाग जाता है ।
नई सड़क और डाउन हिल |
रुमसे रुककर हम गर्मागर्म चाय के साथ बचे हुए पराठे खाते हैं । तीनों को अंग्रेजी में बात करते देख मैं समझ जाता हूँ कि “खाप पंचायत का फतवा कुछ ही पलों में आने वाला है” । अब तक के डाउन हिल और स्थानीय अंकिल के बयान के अनुसार “लेह तक पूरा डाउन हिल है” को मध्यनजर रखते हुए मैं खाप पंचायत का फैसला सर-माथे से लगाता हूँ और हम उप्शी के लिए निकल जाते हैं जोकि यहाँ से मात्र 26 किमी. दूर है ।
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) इतने रंग तो जीवन में भी नहीं हैं जितने इन पहाड़ों में हैं |
रुमसे से आगे बढ़ते ही पहाड़ वो रंग दिखाते हैं जो आजतक मैंने किसी पहाड़ पर नहीं देखें, लाल, हरा, सफेद, ग्रे, ब्राउन आदि रंग देखकर दिल खुश हो जाता है । रंगों के साथ-साथ हम कुछ बेहद खुबसूरत गांवों को क्रोस करते हैं जिनमें मुख्य ससोमा, लाटो, मेरु और गया रहे । रोंग नामक गाँव के एक पैदल रास्ता मरखा निकलता है, जहाँ पहुंचने में तीन पास क्रोस करते पड़ते हैं । मेरु गाँव से पैदल चलकर स्टोक कांगड़ी पीक के बेस कैंप पहुंचा जा सकता है । मेरु में ख्याम्मर नदी में फुयल स्ट्रीम मिलता है जोकि मेरु पीक (5350 मी.) से आता है और आगे जाकर उप्शी में ख्याम्मर नदी इंडस नदी में मिलती है ।
उप्शी |
04:20 निकलते हैं और स्थानीय अंकिल की बात सच सिद्ध होती है, यहाँ तक सारा रास्ता डाउन मिलता है । उप्शी स्थित चेक पोस्ट पर हमारी डिटेल्स नोट होती हैं, बाकी पर्यावरणवाद से प्रभावित होकर दो स्थानीय महिलाएं पर्ची काट रही हैं शुक्र है हम अपनी कंगाली का उलाहना देकर बच निकलते हैं । उप्शी में जितने लोग मिले उतने ही ट्रक और गाड़ियाँ, इतनी भीड़ में टेंट लगाने की जगह न मिल पाने के कारण खाप पंचायत का अगला फतवा यह है कि “चलो कारू” । यह दुरी 14 किमी. है और डाउन हिल के लालच में सभी फिर से साइकिलों पर आ जाते हैं बस एक मैं ही अब बेमन पैडल मारता हूँ ।
यह कोई डाउन हिल नहीं है, सारे रास्ते साइकिल को छोटे गियर पर ही चलाना पड़ा । यह 14 किमी. जी का जंजाल बन जाता है, अत्यंत दुखों का सामना करके हम कारू पहुंचते हैं । रोशनी जाने में कुछ ही समय बचा है लेकिन यहाँ तो कहीं भी कोई जगह नहीं दिखती टेंट पिच करने को तो हम एक रूम में रुकने का तय करते हैं लेकिन 200 रूपये प्रति बेड के ऑफर को छोड़कर हम होटल वाले को समझाते हैं कि “भाई/सर/महोदय इतना पैसा होता तो साइकिलिंग थोड़े करते गाड़ी से आते, आप ये बताओ कि होटल की पार्किंग में टेंट लगा लें?” ।
वो हमारे जले हुए चेहरों को देखता है और यह बोलकर परमिशन दे देता है कि “सुबह जल्दी उठ जाना नहीं तो स्कूल बस कुचल देगी चारों को टेंट समेत” । सभी एक साथ हाँ में गर्दन हिलाते हैं । 09:30 बजे टेंट पिच होता है फिर बिना समय गवाएं सभी शानदार पेटभर डिनर करके रात 10:30 बजे अपने-अपने स्लीपिंग बैग में डेड हो जाते हैं ।
कारू से रास्ता सीधा पैंगोंग जाता है जोकि यहाँ से लगभग 110 किमी. दूर है, जहाँ तक पहुंचने के लिए चांग-ला क्रोस करना पड़ता है । आज का दिन बहुत लम्बा रहा, थैंक्स टू खाप पंचायत, 92 किमी. दुरी तय करने के बाद घुटनों और पिछवाड़े किसमें ज्यादा दर्द है यह बता पाना मुश्किल टास्क बन गया ।
Day 11 (14 जून 2014, कारू से लेह)
दुरी 35 किमी, साइकिल पर समय लगा 01:30 घंटे, एलेवेश्न गेन 249 मीटर, (कारू एलेवेश्न 3435 मीटर, लेह एलेवेश्न 3557 मीटर, खर्चा 90 रूपये)
तड़के चारों दो टेंटों में मजे से सोये थे कि तभी एक स्कूल बस ने पार्किंग में आकर सबको गुड मोर्निंग बोल दिया । सबके वनमानुष जैसे चेहरों पर कोई भाव नहीं है, मशीनी तरीके से हम टेंट पैक करते हैं और 08:30 हम नाश्ते के लिए निकलते हैं । यह प्लान है कि नाश्ता यहीं करेंगे क्योंकि यहाँ खाना टेस्टी है जैसाकि कल रात खाया था । आलू के पराठे और दही के साथ मजेदार नाश्ता करते हैं, आज सिर्फ 35 किमी. की दुरी ही तय करनी है इसलिए हमें निकलते-निकलते 10 बज जाते हैं । टेस्टी पराठों का नशा बदन के असहनीय दर्द को भुला देता है ।
इस बस ने जोरदार हॉर्न बजाकर हमें धप्पा बोला था |
घाटी के इस हिस्से में हरियाली, इंडस नदी और स्टोक रेंज को देखकर बहुत सुकून मिल रहा है, आज योगेश और सनोज एक साथ चल रहे हैं जबकि मैं और धनुष जोड़े में हैं । अब तक हम चारों आपस में काफी खुल चुके हैं, मल्लू लौंडे मुझसे बात करते हुए हिंदी बोलने पर जोर दे रहे हैं जबकि मैं दुनिया की सबसे बुरी अंग्रेजी बोलकर उन्हें यह दिखाने पर तुला हूँ कि “तुम्हें हिंदी बोलने की जरूरत नही है मुझे इंग्लिश आती है” ।
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(फोटो: Dhanush k Dev) लेह की तरफ जाते कुछ फ्री सोल्स |
रास्ते में थिकसे मोनस्ट्री, शे पैलेस और चोगलमसर स्थानों को क्रोस करते हैं । गर्मी की तीव्रता को देखते हुए हम जैकेट उतार फैंकते हैं और चोगलमसर में आइस-क्रीम का लुत्फ उठाते हैं । चोगलमसर से एक रास्ता स्टोक गाँव के लिए जाता हैं जहाँ से आगे स्टोक कांगड़ी पीक तक जाया जा सकता है । चोगलमसर के बाद रास्ता टूटा मिलता है, यहाँ से लेह कुछ ही किमी. रह जाता है । चारों तरफ गाड़ियाँ, धूल, हॉर्न और पब्लिक है, इतने दिनों से हमने लेह को इस रूप में बिलकुल भी नही सोचा था ।
11:30 हम लेह पहुंच जाते हैं, जहाँ पहुंचकर चारों जितने खुश होते हैं उतने ही कन्फ्यूज्ड भी । “अब कहाँ जाना है?, कहाँ रुकना है?”, जैसे सवाल सबके माथे पर उभर आते हैं । स्थानियों ने हमें खूब डराया कि लेह तो बहुत महंगा है, और हम खुद भी उनकी बात का समर्थन करते हैं । आज भी टेंट लगा सकते हैं लेकिन गर्म पानी से नहाने का लालच हमें सोचने पर मजबूर कर रहा है ।
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(फोटो: Dhanush k Dev) टूटा रास्ता, धूल और जलती नाक |
योगेश इस हालात से सभी को बाहर निकालता है, वो अपने मौसा जी को बोलकर हमारे लिए लेह एअरपोर्ट रोड़ पर आर्मी गेस्ट हाउस में एक रूम बुक करा देता है । फोन पर आर्मी वाले हमें वहीँ रुकने को बोलते हैं, लगभग डेढ़ घंटे इंतजार के बाद एक आर्मी जिप्सी हम जिप्सियों को लेने आती है, अब उनकी गाड़ी हमारे आगे चल रही है और चारों साइकिलें पीछे । रास्ता उतराई वाला है जिसे सोच-सोचकर मैं थूक सटक रहा हूँ कि अगर वहाँ रूम नहीं मिलता तो इस चढाई को कैसे चढूँगा? ।
(फोटो: Dhanush k Dev) लेह चौक |
02:30 बजे हम सारे पेपर-वर्क के बाद रूम में आ जाते हैं जहाँ हम पर दुनिया में जितने नियम हैं सभी लागू कर दिए जाते हैं । दरअसल आज यहाँ कोई पार्टी है इसलिए हम रूम से बारह नहीं जा सकते, फोटो नहीं खिंच सकते, टीवी ऊँची आवाज में नहीं चला सकते, ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकते । ब्रिगेडियर या कर्नल एक असिस्टेंट नियुक्त कर देता है हमारे लिए जिसका नाम नवीन है, जो ध्यान रखेगा कि हम हर नियम को मानें ।
चारों अपने-अपने घरवालों को अपने कुशल-मंगल पहुंचने की सूचना देने के बाद एक-एक करके सब नहाते हैं और योगेश को छोड़कर सभी ने बाथरूम की नाली को अपने लम्बे बालों से ब्लाक कर दिया है । बाथरूम में चार इंच पानी भर जाने के बाद सभी को ब्रिगेडियर की गोली का डर सताने लगता है ।
तमाम नियमों के बावजूद हम एक फोटो खींचने में कामयाब हो गये |
नवीन हमारे लिए ब्रेड टोस्ट ले आता है चाय के साथ जिसे हम भूखे भेडियों की तरह पल-भर में चट कर देते हैं । सबकुछ खा लेने के बाद भी हम भूखे हैं इसलिए हम अपने साथ लाए पारले-जी बिस्कुट खाते हैं जैम के साथ । रात को बाहर पार्टी चलती है और भीतर हम आठ बजे डिनर कर लेते हैं । सभी देर रात 11:30 बजे सोते हैं ।
अच्छा सोने से पहले चारों वोटिंग करते हैं कि “जो साइकिल से खारदुंग-ला जाना चाहता है हाथ उठायें”, मकरों की तरह कोई हाथ नहीं उठाता । फिर दुसरा पोल होता है जिसमें सवाल है कि “बुलेट पर कौन-कौन पेंगोंग लेक’ जायेगा?”, सभी एक साथ ‘डुग-डुग-डुग’ बोलकर इस प्रस्ताव को पूर्ण बहुमत देते हैं ।
आज कारू से लेह तक सिर्फ 35 किमी. की साइकिलिंग होती है, और आज का कुल खर्चा 90 रूपये रहा ।
Day 12 (15 जून 2014, लेह-खारदुंग-ला ट्रिप मोटरबाइक से)
दुरी 40 किमी, मोटरबाइक पर समय लगा 04 घंटे, एलेवेश्न गेन 2504 मीटर, (लेह एलेवेश्न 3557 मीटर, खारदुंग-ला एलेवेश्न 5359 मीटर, खर्चा 1292 रूपये)
ये गेस्ट हाउस 17 जून की सुबह तक हमारे लिए बुक है । रूम से किसी ब्रिगेडियर की बिगड़ी औलाद टाइप 09:30 बजे निकलते हैं और बाहर से 20 रूपये देकर लेह मार्किट पहुंचते हैं । बाजार में किराये के लिए तमाम तरह की मोटरबाइक उपलब्ध हैं और सभी का अलग-अलग किराया है । जितना ज्यादा सीसी (CC) उतना ज्यादा किराया । हमारे एक दिन में पैंगोंग जाकर वापस आने वाले प्लान को सुनकर कोई भी हमें बाइक देने को तैयार नहीं है, फिर यह भी कंडिशन सामने आती है कि सिर्फ एक दिन के लिए बाइक किराये पर नही मिलेगी, कम-से-कम दो दिन का किराया तो देना ही होगा ।
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(फोटो: Dhanush k Dev) बाइक के लिए बार्गेन करते हुए, जिसपर दुकानदार का कहना है अदरक ले रहे हो या बाइक? |
तो अंग्रेजी, हिंदी और अंग्रेजी में अजीबो-गरीब बहस के बाद हम दो इम्पल्स लेते हैं फॉर टू डेज । प्रति बाइक हम 700 रूपये चुकाते हैं जिसमें पेट्रोल और फिजिकल टूट-फूट हमें भुगतनी होगी जैसी शर्तों पर दस्तखत करके हम पेट्रोल पंप पहुंच जाते हैं तेल भरवाने ।
दोनों बाइकों में 1700 रूपये का तेल डलता है । पेट्रोल पंप पर तीनों भाषाओँ के प्रतिनिधि अपना-अपना मत रखते हैं जिसके बाद परिणाम यह निकलता है कि “पहले खारदुंग-ला जायेंगे फिर पेंगोंग झील” । पौने ग्यारह बजे हम खारदुंग पास के लिए निकल पड़ते हैं । मोटरबाइक पर बैठना साइकिल चलाने के मुकाबले कहीं ज्यादा आरामदायक है । पुरे रास्ते भर मैं सिर्फ फोटो ही खींचता रहा, कुछ किमी. बाद कहीं लैंड स्लाइड हुआ है जिसके लिए आधा घंटा इंतजार करना पड़ता है ।
लेह क्रोस करते हुए |
26 किमी. बाद साउथ पुल्लू स्टेशन आता है जहाँ सभी फोर व्हीलर और टू व्हीलर की एंट्री होती है । रास्ते में कुछ जाबाज़ मिलते हैं जो साइकिल से खारदुंगला जा रहे हैं, इनके आलावा दो सनकी-क्रेजी गायस भी मिलते हैं जो पैदल ही पास तक जा रहे हैं । कुछ साइकिलिस्ट रोड़ के साइड में बैठे हैं या चल बसे हैं कह पाना मुश्किल है जबकि कुछ लिफ्ट मांगते दिखाई देते हैं जिनके प्रति मैं सहानुभूति प्रकट करता हूँ ।
लेह से खारदुंग-ला साइकिलिंग करने वाले कभी बैठ भी पाते होंगे |
01:30 हम दुनिया का सबसे ऊँचा कहे जाने वाले मोटरेबल रोड़ पर पहुंचते हैं, यहाँ धुंआ, बर्फ, ठण्ड, साइकिलें, पड़ी हुई उल्टियाँ, जोर-जोर से साँस लेते लोग और बेहोश होते हुए सिटी पीपल हैं । “हाईऐस्ट मोटरेबल रोड़ इन द वर्ल्ड” वाले बोर्ड को पब्लिक ने ऐसे घेर रखा है जैसे वहां से ऑक्सीजन और गर्म भाप निकल रही हो । हमारा नम्बर तकरीबन 20 मिनट बाद आता है, फोटो खींचने के बाद चारों का एक साथ कहना है “मूड ऑफ हो गया यहाँ आकर” ।
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(फोटो: Dhanush k Dev) बड़ी कम फोटो हैं जिनमें हम चारों हैं |
भूख लगती है तो पास ही के एक कैंटीन में हम चाय-बिस्कुट खाकर वापस हो लेते हैं । बैक-टू-बैक मिली निराशाओं को मध्यनजर रखते हुए हम रास्ते में ही पेंगोंग झील न जाने का फैसला लेते हैं । मोटर-साइकिलों को आज ही वापस कर देंगे जबकि तेल को निकालर किसी को बेच देंगे । तो इस माइंड-सेट के साथ लेह हम 03:35 पहुंचते हैं । दूध-केले लेकर रूम पर पहुंचते हैं जहां से वापस मार्किट निकल जाते हैं । हम उसी बस वाले को पेट्रोल बेच देते हैं जिस बस से हमने श्रीनगर जाना तय किया है ।
11 लीटर पेट्रोल वो 700 रूपये में लेता है, लेह से श्रीनगर बस का किराया 1058 रूपये है प्लस 300 रूपये प्रति साइकिल । हमारा प्लान 17 जून को श्रीनगर निकलने का है लेकिन 16 जून के बाद सभी गाड़ियाँ 33वे कालचक्र पूजा में व्यस्त रहेंगी इसलिए हमें कल ही निकलना होगा । बस की टिकट बुक कराने के बाद दोनों मोटरबाइक को वापस करने पर 700 रूपये का रिफंड मिलता है ।
Day 13 (16 जून 2014, लेह-श्रीनगर)
दुरी 390 किमी, बस से समय लगा 10 घंटे, एलेवेश्न गेन 5769 मीटर, (लेह एलेवेश्न 3557 मीटर, श्रीनगर एलेवेश्न 1585 मीटर, खर्चा 2615 रूपये)
मनाली से लेह के बीच इतना खर्चा नही हुआ जितना यहाँ आर्मी गेस्ट हाउस में हो गया, टोटल 4300 रूपये चुकाकर हम सबको बर्बाद होने की फिलिंग आने लगी । सारे साजो-सामान के साथ सबसे पहले हम टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर जाते हैं जहाँ विश्व का सबसे घटिया मैप मिलता है फिर लेह बस अड्डे पर जाकर श्रीनगर जाने वाली बस की छत पर चारों साइकिलों को बांध देते हैं ।
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(फोटो: Dhanush k Dev) लेह बस स्टैंड पर साइकिलों को सेट करते हुआ बस का कंडक्टर |
बस दोपहर 02 बजे चलती है और जल्दी ही ‘पत्थर साहिब गुरूद्वारे’ को क्रोस करती है । 53 किलो. से जब वजन 45 किलो पर आ जाये तो शरीर ध्रुवीय भालू की भांति छह महीने के लिए हाईब्रनेशन मोड़ में जाना चाहता है तो इसी मोड़ के तहत मैं सो गया, बीच-बीच में आँख खुली लेकिन उतनी ही जल्दी बंद भी हो गयी । शाम 07:30 हम लोग कारगिल उतरकर डिनर करते हैं जहाँ प्रति-व्यक्ति 95 रूपये का खाना मिलता है ।
Day 14 (17 जून, कारगिल – श्रीनगर)
दुरी 199 किमी, बस से समय लगा 14 घंटे, एलेवेश्न गेन 2400 मीटर, (कारगिल एलेवेश्न 2819 मीटर, श्रीनगर एलेवेश्न 1585 मीटर, खर्चा 120 रूपये)
बस 08:30 चलती है जिसके बाद अनमने ढंग से थोड़ी बातचीत करके मैं फिर से सो जाता हूँ फिर आँख सीधा सुबह 06:30 खुलती हैं । रोड़ किनारे लगे बोर्ड बताते हैं कि हम सोनमर्ग क्रोस कर रहे हैं । बस कंगन रूकती है जहाँ सब लोग नाश्ता करते हैं, चाय वाले से पूछते हैं कि श्रीनगर कितना दूर है जिसपर उसका बोलना है एक घंटे से पहले पहुंच जाओगे । यहीं कहीं से कश्मीर ग्रेट लेक्स का ट्रेक भी शुरू होता है, देखो कब मौका मिलता है जाने का ।
पत्थर साहिब गुरुद्वारा पार करते हुए |
09:30 बजे हम हिन्दोस्तान की सबसे खुबसूरत घाटी कश्मीर में खड़े हैं, जल्द ही साइकिलों के साथ बाकी के सामान को बस की छत से उतारकर चारों सीधा ही टूरिस्ट इनफार्मेशन सेण्टर जाते हैं जहाँ से 10 रूपये का मैप खरीदते हैं और एक अंकिल को बोलकर अपने सारे सामान को वहीं एक रूम में रखवा देते हैं...जिसका 100 रूपये किराया वसूलते हैं वो हमसे ।
कंडक्टर बदला और साइकिलों की दशा भी |
अब वक्त टशन दिखाने का है, हम चारों साइकिल से डल लेक का चक्कर लगाते हैं, फिर नेहरु गार्डन घूमते हैं । लंच करके हम सीधा टैक्सी स्टैंड पहुंचे जहां 600 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से हम उधमपुर तक के लिए अपनी टिकट बुक करा लेते हैं । शाम 5 से पहले चारों साइकिल्स को टवेरा की छत पे बांधकर हम निकल पड़ते हैं घर वापसी की ओर ।
डल किनारे साइकिलिंग करना भी उम्र बढ़ा सकता है |
Day 15 (18 जून 2014, श्रीनगर से उधमपुर)
दुरी 192 किमी, तवेरा से समय लगा 09:30 घंटे, एलेवेश्न गेन 4463 मीटर, (श्रीनगर एलेवेश्न 1585 मीटर, उधमपुर एलेवेश्न 655 मीटर, खर्चा 1193 रूपये)
सुबह के तीन बजे थे या चार अब याद नहीं लेकिन जो याद है वो ये कि अँधेरे में साइकिल को असेम्बल करने में हमारे हाथ जरुर काले हो गये हैं । उधमपुर चौक से उधमपुर रेलवे स्टेशन कुछ ही मिनटों में पहुंच जाते हैं । गेट पर मिले गार्ड ने बताया कि स्टेशन में एंट्री 6 बजे होगी इसलिए हम पार्किंग में ही सो गये करीबन दो घंटे के लिए ।
सबसे पहली ट्रेन दिल्ली के लिए 07:45 पर जा रही थी लेकिन लगेज ऑफिस 8 बजे खुलना था इसलिए हम दोपहर 02:45 वाली ट्रेन का जर्नल टिकट कटाते हैं जोकि 165 रूपये है पर पर्सन । लगेज ऑफिस में बात करके चारों साइकिलों को बुक करा देते हैं जिनका 130 रूपये प्रति साइकिल चार्ज लगता है । इस सबके बाद बारिश शुरू हो जाती है जिसके बाद हम मौसम ठंडा हो जाता है, ट्रेन छूटने से पहले हम दो से तीन बार खाना खा चुके हैं ।
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) उधमपुर सूरज की पहली किरण में नहाया हुआ |
ट्रेन यहीं से बनकर चलती है इसलिए सीट मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई । हमारे तीन गांवों जितने सामान को देखते हुए लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी है कि “इन सज्जनों को क्या दिक्कत है भई” । जम्मू के बाद टनों की संख्या में सवारियां चढ़ी और जहां पहले हम एक सीट पर चार लोग बैठे थे वहीँ अब सात हो गये हैं । गर्मी बढ़ गयी है जिससे साँस रुक रूककर आ रही है । सवारियों के पसीने की बदबू के कारण मैं बेहोश हो जाता हूँ ।
Day 16 (19 जून 2014, उधमपुर से फरीदाबाद)
योगेश उठाता है और बोलता है कि उठ जा भाई दिल्ली आ गये हैं, घड़ी समय सुबह के 05:45 दिखाती है । जल्द ही हम साइकिल अपने कब्जे में लेते हैं और तीन गांवों का सामान साइकिल पर बांधकर रेलवे स्टेशन से बाहर आ जाते हैं जहाँ इस ट्रिप की आखिरी चाय पीकर चारों अपने-अपने घरों के लिए रवाना होते हैं ।
मनाली-लेह हाईवे की डिटेल्स |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) टूटा रास्ता और दूर दिखता तंगलंग ला |
सर्व धर्म मंदिर ऐट तंगलंग ला |
रुमसे |
गया गाँव |
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(फोटो: Dhanush k Dev) स्थानीय बच्चें हाई-फाइव देते हुए |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) |
भस्मासुर के वेश में एक नकाबपोश |
शे पैलेस |
पत्थर पर बने प्राचीन चित्र |
थिकसे क्रोस करते हुए |
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(फोटो: Dhanush k Dev) थिकसे मोनास्ट्री |
दूर दिखती सपनों की नगरी लेह |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) शे पैलेस के सामने खुबसुरत हरे ग्राउंड |
लेह से पहले मिला टूटा रास्ता |
लेह चौक पर चारों अपनी रोतडी सुरत लेकर जीत का जश्न मनाते हुए |
लेह बाज़ार |
दूर दिखता शांति स्तूप |
खारदुंग ला जाते हुए |
साउथ पुल्लू से दिखती हुई स्टोक रेंज |
साउथ पुल्लू |
साउथ पुल्लू पर एंट्री हो रही |
खारदुंग ला पर बना सर्व धर्म मंदिर |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) लेह पैलेस |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) लेह बस स्टैंड पर तैयार हमारी बस |
ये शायद लामायुरू है |
सोनमर्ग और चाय |
डल लेक |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) |
नेहरु पार्क |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) लेफ्ट टू राईट: योगेश, फ्री सोल बाबा और धनुष |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) टवेरा पर सवार हम और हमारी साइकिलें |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) इतने घटिया तरीके से साइकिलों को कौन बांधता है भई |
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(फोटो: Sanoj Vazhiyodan) उधमपुर रेलवे स्टेशन |
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(फोटो: Dhanush k Dev) पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन |
बंदरलस्ट जाग गई।😍
ReplyDeleteमतलब लिखना सफल हुआ
ReplyDeleteबहुत मस्त
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteरोहित भाई मुझे आपकी ट्रेकिंग बहुत पसंद हैं शब्दों का सटीक इस्तेमाल मज़ा आ जाता है पड़ने मै भगवान आपमें
ReplyDeleteऐसी एनर्जी बनाए रखे
बस सर ऐसा बोल दिए छाती चौड़ा हो गया हमारा
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