02 फरवरी 2016
नेर्ख तक न पहुंच पाने का गम गुम्बूट्स के उतरते ही उतर गया । आठ दिन बिताकर चादर पर मैं लेह में पहुंच गया था और तैयार था सर्दियों के लेह को देखने के लिए । चार दिन बाद अपनी फ्लाइट है दिल्ली की तब तक मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करके लेह के कुछ चुनिन्दा स्थानों पर घुमुंगा । आओ शुरू करें...
शांति स्तूप (मंगलवार 02 फरवरी 2016)
लेह में सर्दियों में रहना अति-अति महंगा है और मौसम की मार इसे और मुश्किल बनती है । इसी मुश्किल को खुद तेनजिंग ने आसान बनाया यह बोलकर कि “आप मेहमान है हमारे निसंकोच हमारे साथ रुकें” । उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद अगले दिन मैं पैदल ही लेह मार्किट की ओर निकला । ज्यादातर मार्किट बंद दिखी और यहाँ-वहां भटकने के बाद मैं पैदल-पैदल शांति स्तूप की ओर बढ़ने लगा । 15 मिनट लगे स्तूप की सीढियाँ चढ़कर स्तूप तक पहुंचने में, दिल का हाल टुकड़े-टुकड़े गैंग’ टाइप हो गया था । यहाँ से खारदुंग-ला जाने का रास्ता बर्फ के बीच चमक रहा था, वहीँ दूर कहीं स्टोक कांगड़ी चोटी भी दिखाई दे रही थी । यहाँ कोई नहीं था सिवाय सुंदर नजारों के, लेह इससे ज्यादा सुन्दर न दिखा पहले कभी । पूरा शहर ध्रुवीय भालू की भांति दिख रहा था जो पूरी सर्दी सोयेगा । स्तूप के चारों ओर घुमने से पता चलता है कि स्तूप शांति के प्रतीक के साथ-साथ महात्मा बुद्ध की जीवन कथा को भी प्रदर्शित करता है ।
अब वक्त था लेह पैलेस जाने का, तो सीढियों से उतरते ही घुटनों की गर्मी वापस आ गयी । रास्ते में मिले लोग ऐसे दिख रहे थे जैसे अभी-अभी पैदा हुए हों, सब अलसाई आँखों से मुझ दाढ़ी वाले को देखकर पक्का अपनी जुबान में गाली-वाली दे रहे होंगे । खैर सर्दियों में ‘लेह-पैलेस’ बंद रहता है, तो मुझे भी बंद ही मिला । अब तक दोपहर के तीन बजे चुके थे, नीचे उतरते हुए रास्ते में एक शाकाहारी भोजनालय मिला जहां 70 रूपये की थाली लपेटकर एक लम्बी डकार के बाद वापस तेनजिंग के घर पहुंचा ।
स्पीटुक मोनास्ट्री (बुद्धवार 03 फरवरी 2016)
सुबह सवा साथ उठकर नमकीन चाय को पीना एक मुश्किल काम था । साढ़े नौ बजे निकला स्पीटुक के लिए जोकि यहाँ से लगभग 3.5 किमी. दूर है । पैदल पहुंचने में समय लगा डेढ़ घंटे, मोनास्ट्री में समय बिताया साढ़े तीन घंटे । सर्दियों की वजह से ज्यादातर लामा अपने-अपने घर गये हुए हैं, यहाँ सिर्फ कुछ ही लामा मौजूद हैं जिनमें से एक बुजुर्ग लामा ने मुझे ऊपर मंदिर में जाने के लिए कहा । इन्टरनेट के हिसाब से यहाँ काली का मंदिर है तो मुझे लगा कि यही वो इन्टरनेट वाला काली मंदिर होगा, जूते उतारकर मैं मन्दिर में दाखिल हुआ, वहां कोई नहीं था । एक के बाद एक कमरे में दाखिल होता चला गया और फिर अंतत मैं उस काली की मूर्ति के सामने खड़ा था । यहाँ कुल 11 मूर्तियाँ हैं जिनमें दो विशाल हैं और बाकी सब छोटी । पता नहीं क्यूँ लेकिन सभी मूर्तियों का मुंह कपड़े से ढका हुआ था । कपड़े से ढके होने के बाजवूद भी बड़ी मूर्तियों ने मुझमें हलचल पैदा कर दी ऊपर से कमरे में अँधेरा ।
अब मैं मंदिर से बाहर था और एक लामा भिक्षुणी को देखा जिसे ‘जुले’ कहे बिना न रह पाया, उसने भी जुले कहा और तेज कदमों से बहुत सारे कमरों में से किसी एक में गायब हो गयी । बस फिर कुछ समय घूप में बिताकर वापस तेनजिंग के घर पहुंच गया ।
थिकशे मोनास्ट्री और शे पैलेस (गुरुवार 04 फरवरी 2016)
एक और दिन शुरू होता है, मैं लेह बस स्टैंड पर खड़ा हूँ पब्लिक बस के लिए जो मुझे थिकशे मोनास्ट्री ले जाएगी । स्थानियों से मिली जानकारी के हिसाब से थिकशे, शे पैलेस और पत्थर साहिब गुरूद्वारे के लिए रोज सुबह बस जाती है करेक्ट नौ बजे, मुझे भी इसी बस का इंतजार था । पैदल ही बस स्टैंड पर पहुंचा, साँसे फूलने के साथ-साथ मुंह एकदम सुन्न हो रहा था । बस मिल गयी और सीट भी, साढ़े नौ बजे बस ने चलना शुरू किया । 40 रूपये लगे किराये के थिकशे तक पहुंचने में । रोड हेड से मोनास्ट्री की दूरी डेढ़ किमी थी जिसे पैदल ही तय किया गया । सर्दियों की वजह से यह मोनास्ट्री भी लगभग खाली ही थी, मुख्य मंदिर बंद मिला । बाहर प्रागण में धूप सेककर मैं शे पैलेस के लिए निकला । बाहर रोड के साथ एक छोटा सा तालाब है जो अभी बिलकुल जमा हुआ है और स्थानीय लडके उसपर हॉकी खेल रहे हैं ।
पैदल ही शे पैलेस पहुंचा जोकि यहाँ से कुछ ही दुरी पर था । यहाँ साफ़-सफाई चल रही थी शायद कोई बड़ी पूजा होने वाली थी । लगभग पुरे किले में घुमने के बाद बाहर आ गया । अब भूख लग रही थी तो पास स्थित एक दूकान से बिस्कुल का पैकेट ले लिया और वैन को 20 रूपये देकर चोगलमसर पहुंचा जहाँ स्थानीय डिश का भक्षण किया, नाम याद नही लेकिन थे नुडल ही । वैन से लेह पहुंचा और फिर तेनजिंग के घर । इस प्रकार एक और दिन समाप्त हुआ ।
गुरुद्वारा श्री पत्थर साहिब (शुक्रवार 05 फरवरी 2016)
यहाँ से लेह बस स्टैंड दूर है इसलिए मैं एअरपोर्ट रोड पर स्थित बस स्टैंड पर पहुंचा जहां वो नौ बजे वाली बस आने वाली है । बस में एक व्यक्ति ने मुझे पहचान लिया और अपने जानने वालों को बोलकर मुझे भी एक सीट दिलवा दी, यह वही बंदा है जो लिंगशेड से अकेला ही लेह जा रहा था । 40 रूपये का टिकट लेकर मैं सुबह 10 बजे गुरुद्वारे उतरा । मैं पहले भी इस स्थान को बस में क्रोस कर चुका हूँ लेकिन पहली बार यहाँ पहुंचना हुआ है । जूते उतारकर गुरूद्वारे में प्रवेश किया, यहाँ सबकुछ शांत और धीमे था ।
पहले मैं समझता था कि इस गुरूद्वारे को भी सिख गुरुद्वारा समिति चलाती है लेकिन यहाँ पहुंचकर समझ आया कि भारतीय सेना ही इसको संचालित करती है पुरे साल, हर दिन और हर मौसम । भीतर जाकर मत्था टेका और उस पवित्र पत्थर को ध्यान से देखा जिसे हम सब पूजते हैं । एक जवान कारपेट साफ़ कर था तो वहीँ दूसरे ने बूंदी+नमकीन का प्रसाद खिलाया मुझे । बाहर धूप थी तो मैं अपनी डायरी में लिखने लगा, लिखते देख कुछ जवान मेरे पास आ गये और जानने का प्रयास करने लगे कि मैं किस बारे में लिख रहा हूँ । उनमें से किसी ने भी मेरी इस बात पर यकीन नहीं किया कि “मैं रोजमर्रा की बातों को पेजों पर उतारता हूँ”, बल्कि वो यह बोलने लगे कि मैं लेखक हूँ और मेरी किताब आने वाली है । न वो समझ पाए न मैं समझ पाया, लम्बे वाले पाजी का कहना था कि इस गुरूद्वारे और हमारे बारें में जरुर लिखना ।
दोपहर को मैंने सभी के साथ लंगर ग्रहण किया और फिर बातचीत का दौर चालू हुआ जोकि चार बजे तक चलता रहा । एक जवान के कहा कि “अब आपको चलना चाहिए नहीं तो दिन की आखिरी बस छुट जाएगी” । जूते पहनकर ऐसे ही मैं रोड पर पहुंचा वैसे ही बस निकल चुकी थी । सूरज ढलने वाला है और कोई भी गाड़ी मुझे लिफ्ट नहीं दे रही है । लेह यहाँ से 25 किमी. दूर है और समय व्यर्थ न करते हुए मैंने पैदल ही लेह की तरफ चलना शुरू कर दिया । लक्कीली तीन किमी. चलने के बाद ही एक कैम्पर ने लिफ्ट दे दी, पीछे कुछ स्थानीय मजदूर बैठे हैं और ये कैम्पर पीछे से एकदम खुला है, ठंडी हवा से हर जगह घुसकर खलबली मचा दी है ।
तेनजिंग के घर पहुंचते-पहुंचते साढ़े साथ बजे गये, खैर घर पहुंचकर पहले तो लिटरों के हिसाब से उन्होंने नमकीन चाय पिलाई जिसके बाद मैंने अपना सारा सामान पैक कर लिया । कल की फ्लाइट है ।
लेह से दिल्ली (शनिवार 06 फरवरी 2016)
सुबह तेनजिंग फॅमिली को टाटा बाय-बाय करके पैदल ही एअरपोर्ट के लिए निकलता हूँ । गेट पर 15 मिनट तक शिनाख्त होती है और सारे आईडी दिखाने के बाद एअरपोर्ट में एंट्री मिल जाती है । अंदर एक नेपाली मिलता है जोकि इंडियन आर्मी के लिए सियाचिन में लोड फेरी करता है, उसका पैर टूट गया था ग्लेशियर से गिरकर इसलिए अब वो अपने घर नेपाल वापस जा रहा है । मेरे दोनों बैग लगेज में चले जाते हैं और बोर्डिंग पास इशू हो जाता है । सुबह साढ़े दस बजे गो एयर की फ्लाइट हवा में पहुंच जाती है, मैं इस बार भी सेम सीट पर बैठा हूँ ।
मेरे पीछे तीन आर्मी के जवान बैठे हैं, बातचीत से पता चलता है कि तीनों की पोस्टिंग पैंगोंग झील पर है । बराबर में एक लड़का बैठा है जोकि ऋषिकेश से है, उससे बात करके पता चला कि वो ट्रांस हिमालय का दीवाना है और पिछले बाहर सालों से बस इसी पहाड़ी श्रृंखला में घूम रहा है । उसने मुझे एअरपोर्ट से अपने साथ टैक्सी शेयर करने का न्यौता दिया, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
साढ़े बारह बजे दिल्ली एअरपोर्ट से निकलकर अपनी पहली लेह विंटर ट्रिप समाप्त होती है ।
नेर्ख तक न पहुंच पाने का गम गुम्बूट्स के उतरते ही उतर गया । आठ दिन बिताकर चादर पर मैं लेह में पहुंच गया था और तैयार था सर्दियों के लेह को देखने के लिए । चार दिन बाद अपनी फ्लाइट है दिल्ली की तब तक मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करके लेह के कुछ चुनिन्दा स्थानों पर घुमुंगा । आओ शुरू करें...
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शांति स्तूप |
शांति स्तूप (मंगलवार 02 फरवरी 2016)
लेह में सर्दियों में रहना अति-अति महंगा है और मौसम की मार इसे और मुश्किल बनती है । इसी मुश्किल को खुद तेनजिंग ने आसान बनाया यह बोलकर कि “आप मेहमान है हमारे निसंकोच हमारे साथ रुकें” । उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद अगले दिन मैं पैदल ही लेह मार्किट की ओर निकला । ज्यादातर मार्किट बंद दिखी और यहाँ-वहां भटकने के बाद मैं पैदल-पैदल शांति स्तूप की ओर बढ़ने लगा । 15 मिनट लगे स्तूप की सीढियाँ चढ़कर स्तूप तक पहुंचने में, दिल का हाल टुकड़े-टुकड़े गैंग’ टाइप हो गया था । यहाँ से खारदुंग-ला जाने का रास्ता बर्फ के बीच चमक रहा था, वहीँ दूर कहीं स्टोक कांगड़ी चोटी भी दिखाई दे रही थी । यहाँ कोई नहीं था सिवाय सुंदर नजारों के, लेह इससे ज्यादा सुन्दर न दिखा पहले कभी । पूरा शहर ध्रुवीय भालू की भांति दिख रहा था जो पूरी सर्दी सोयेगा । स्तूप के चारों ओर घुमने से पता चलता है कि स्तूप शांति के प्रतीक के साथ-साथ महात्मा बुद्ध की जीवन कथा को भी प्रदर्शित करता है ।
अब वक्त था लेह पैलेस जाने का, तो सीढियों से उतरते ही घुटनों की गर्मी वापस आ गयी । रास्ते में मिले लोग ऐसे दिख रहे थे जैसे अभी-अभी पैदा हुए हों, सब अलसाई आँखों से मुझ दाढ़ी वाले को देखकर पक्का अपनी जुबान में गाली-वाली दे रहे होंगे । खैर सर्दियों में ‘लेह-पैलेस’ बंद रहता है, तो मुझे भी बंद ही मिला । अब तक दोपहर के तीन बजे चुके थे, नीचे उतरते हुए रास्ते में एक शाकाहारी भोजनालय मिला जहां 70 रूपये की थाली लपेटकर एक लम्बी डकार के बाद वापस तेनजिंग के घर पहुंचा ।
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लेह पैलेस |
स्पीटुक मोनास्ट्री (बुद्धवार 03 फरवरी 2016)
सुबह सवा साथ उठकर नमकीन चाय को पीना एक मुश्किल काम था । साढ़े नौ बजे निकला स्पीटुक के लिए जोकि यहाँ से लगभग 3.5 किमी. दूर है । पैदल पहुंचने में समय लगा डेढ़ घंटे, मोनास्ट्री में समय बिताया साढ़े तीन घंटे । सर्दियों की वजह से ज्यादातर लामा अपने-अपने घर गये हुए हैं, यहाँ सिर्फ कुछ ही लामा मौजूद हैं जिनमें से एक बुजुर्ग लामा ने मुझे ऊपर मंदिर में जाने के लिए कहा । इन्टरनेट के हिसाब से यहाँ काली का मंदिर है तो मुझे लगा कि यही वो इन्टरनेट वाला काली मंदिर होगा, जूते उतारकर मैं मन्दिर में दाखिल हुआ, वहां कोई नहीं था । एक के बाद एक कमरे में दाखिल होता चला गया और फिर अंतत मैं उस काली की मूर्ति के सामने खड़ा था । यहाँ कुल 11 मूर्तियाँ हैं जिनमें दो विशाल हैं और बाकी सब छोटी । पता नहीं क्यूँ लेकिन सभी मूर्तियों का मुंह कपड़े से ढका हुआ था । कपड़े से ढके होने के बाजवूद भी बड़ी मूर्तियों ने मुझमें हलचल पैदा कर दी ऊपर से कमरे में अँधेरा ।
अब मैं मंदिर से बाहर था और एक लामा भिक्षुणी को देखा जिसे ‘जुले’ कहे बिना न रह पाया, उसने भी जुले कहा और तेज कदमों से बहुत सारे कमरों में से किसी एक में गायब हो गयी । बस फिर कुछ समय घूप में बिताकर वापस तेनजिंग के घर पहुंच गया ।
थिकशे मोनास्ट्री और शे पैलेस (गुरुवार 04 फरवरी 2016)
एक और दिन शुरू होता है, मैं लेह बस स्टैंड पर खड़ा हूँ पब्लिक बस के लिए जो मुझे थिकशे मोनास्ट्री ले जाएगी । स्थानियों से मिली जानकारी के हिसाब से थिकशे, शे पैलेस और पत्थर साहिब गुरूद्वारे के लिए रोज सुबह बस जाती है करेक्ट नौ बजे, मुझे भी इसी बस का इंतजार था । पैदल ही बस स्टैंड पर पहुंचा, साँसे फूलने के साथ-साथ मुंह एकदम सुन्न हो रहा था । बस मिल गयी और सीट भी, साढ़े नौ बजे बस ने चलना शुरू किया । 40 रूपये लगे किराये के थिकशे तक पहुंचने में । रोड हेड से मोनास्ट्री की दूरी डेढ़ किमी थी जिसे पैदल ही तय किया गया । सर्दियों की वजह से यह मोनास्ट्री भी लगभग खाली ही थी, मुख्य मंदिर बंद मिला । बाहर प्रागण में धूप सेककर मैं शे पैलेस के लिए निकला । बाहर रोड के साथ एक छोटा सा तालाब है जो अभी बिलकुल जमा हुआ है और स्थानीय लडके उसपर हॉकी खेल रहे हैं ।
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थिकशे मोनास्ट्री |
पैदल ही शे पैलेस पहुंचा जोकि यहाँ से कुछ ही दुरी पर था । यहाँ साफ़-सफाई चल रही थी शायद कोई बड़ी पूजा होने वाली थी । लगभग पुरे किले में घुमने के बाद बाहर आ गया । अब भूख लग रही थी तो पास स्थित एक दूकान से बिस्कुल का पैकेट ले लिया और वैन को 20 रूपये देकर चोगलमसर पहुंचा जहाँ स्थानीय डिश का भक्षण किया, नाम याद नही लेकिन थे नुडल ही । वैन से लेह पहुंचा और फिर तेनजिंग के घर । इस प्रकार एक और दिन समाप्त हुआ ।
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शे पैलेस |
गुरुद्वारा श्री पत्थर साहिब (शुक्रवार 05 फरवरी 2016)
यहाँ से लेह बस स्टैंड दूर है इसलिए मैं एअरपोर्ट रोड पर स्थित बस स्टैंड पर पहुंचा जहां वो नौ बजे वाली बस आने वाली है । बस में एक व्यक्ति ने मुझे पहचान लिया और अपने जानने वालों को बोलकर मुझे भी एक सीट दिलवा दी, यह वही बंदा है जो लिंगशेड से अकेला ही लेह जा रहा था । 40 रूपये का टिकट लेकर मैं सुबह 10 बजे गुरुद्वारे उतरा । मैं पहले भी इस स्थान को बस में क्रोस कर चुका हूँ लेकिन पहली बार यहाँ पहुंचना हुआ है । जूते उतारकर गुरूद्वारे में प्रवेश किया, यहाँ सबकुछ शांत और धीमे था ।
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पत्थर साहिब |
पहले मैं समझता था कि इस गुरूद्वारे को भी सिख गुरुद्वारा समिति चलाती है लेकिन यहाँ पहुंचकर समझ आया कि भारतीय सेना ही इसको संचालित करती है पुरे साल, हर दिन और हर मौसम । भीतर जाकर मत्था टेका और उस पवित्र पत्थर को ध्यान से देखा जिसे हम सब पूजते हैं । एक जवान कारपेट साफ़ कर था तो वहीँ दूसरे ने बूंदी+नमकीन का प्रसाद खिलाया मुझे । बाहर धूप थी तो मैं अपनी डायरी में लिखने लगा, लिखते देख कुछ जवान मेरे पास आ गये और जानने का प्रयास करने लगे कि मैं किस बारे में लिख रहा हूँ । उनमें से किसी ने भी मेरी इस बात पर यकीन नहीं किया कि “मैं रोजमर्रा की बातों को पेजों पर उतारता हूँ”, बल्कि वो यह बोलने लगे कि मैं लेखक हूँ और मेरी किताब आने वाली है । न वो समझ पाए न मैं समझ पाया, लम्बे वाले पाजी का कहना था कि इस गुरूद्वारे और हमारे बारें में जरुर लिखना ।
दोपहर को मैंने सभी के साथ लंगर ग्रहण किया और फिर बातचीत का दौर चालू हुआ जोकि चार बजे तक चलता रहा । एक जवान के कहा कि “अब आपको चलना चाहिए नहीं तो दिन की आखिरी बस छुट जाएगी” । जूते पहनकर ऐसे ही मैं रोड पर पहुंचा वैसे ही बस निकल चुकी थी । सूरज ढलने वाला है और कोई भी गाड़ी मुझे लिफ्ट नहीं दे रही है । लेह यहाँ से 25 किमी. दूर है और समय व्यर्थ न करते हुए मैंने पैदल ही लेह की तरफ चलना शुरू कर दिया । लक्कीली तीन किमी. चलने के बाद ही एक कैम्पर ने लिफ्ट दे दी, पीछे कुछ स्थानीय मजदूर बैठे हैं और ये कैम्पर पीछे से एकदम खुला है, ठंडी हवा से हर जगह घुसकर खलबली मचा दी है ।
तेनजिंग के घर पहुंचते-पहुंचते साढ़े साथ बजे गये, खैर घर पहुंचकर पहले तो लिटरों के हिसाब से उन्होंने नमकीन चाय पिलाई जिसके बाद मैंने अपना सारा सामान पैक कर लिया । कल की फ्लाइट है ।
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गुरुद्वारा श्री पत्थर साहिब |
लेह से दिल्ली (शनिवार 06 फरवरी 2016)
सुबह तेनजिंग फॅमिली को टाटा बाय-बाय करके पैदल ही एअरपोर्ट के लिए निकलता हूँ । गेट पर 15 मिनट तक शिनाख्त होती है और सारे आईडी दिखाने के बाद एअरपोर्ट में एंट्री मिल जाती है । अंदर एक नेपाली मिलता है जोकि इंडियन आर्मी के लिए सियाचिन में लोड फेरी करता है, उसका पैर टूट गया था ग्लेशियर से गिरकर इसलिए अब वो अपने घर नेपाल वापस जा रहा है । मेरे दोनों बैग लगेज में चले जाते हैं और बोर्डिंग पास इशू हो जाता है । सुबह साढ़े दस बजे गो एयर की फ्लाइट हवा में पहुंच जाती है, मैं इस बार भी सेम सीट पर बैठा हूँ ।
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घर वापसी |
मेरे पीछे तीन आर्मी के जवान बैठे हैं, बातचीत से पता चलता है कि तीनों की पोस्टिंग पैंगोंग झील पर है । बराबर में एक लड़का बैठा है जोकि ऋषिकेश से है, उससे बात करके पता चला कि वो ट्रांस हिमालय का दीवाना है और पिछले बाहर सालों से बस इसी पहाड़ी श्रृंखला में घूम रहा है । उसने मुझे एअरपोर्ट से अपने साथ टैक्सी शेयर करने का न्यौता दिया, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
साढ़े बारह बजे दिल्ली एअरपोर्ट से निकलकर अपनी पहली लेह विंटर ट्रिप समाप्त होती है ।
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शांति स्तूप के रास्ते में |
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सर्दियों का रुखा, सूखा लेह |
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लेह |
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शांति स्तूप |
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शांति स्तूप से दिखता लेह पैलेस |
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केसल सेमो |
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केसल सेमो से दिखता लेह पैलेस |
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लेह पैलेस से दिखता शांति स्तूप |
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स्पीटुक मोनास्ट्री |
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फोटो में पीछे दिखाई देता लेह एअरपोर्ट |
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थिकशे मोनास्ट्री |
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थिकशे से दिखाई देती स्टोक रेंज |
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थिकशे मोनास्ट्री |
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थिकशे मोनास्ट्री |
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शे पैलेस |
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शे के भीतर स्थित मंदिर |
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शे किला |
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लेह बस अड्डा |
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गुरुद्वारा श्री पत्थर साहिब |
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गुरुद्वारा श्री पत्थर साहिब |
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गुरुद्वारा श्री पत्थर साहिब |
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चलो वापस |
आपने कुल खर्च कितना हुआ नहीं बताया?
ReplyDeleteसर मेरा कुल खर्चा 23500 रुपये हुआ था
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