20 जुलाई 2019
जून में लेह से घूमकर आये थे, पूरे पांच दिन न सोना न खाना। जब लगातार मुंह से उल्टी गिरती है तब उस धरती पर एलियंस पर भरोसा बढ़ जाता है । वोमिट से सने साथियों के मुंह इंसान कम और एलियन ज्यादा लगते हैं । जुलाई में घर कुछ हफ्ते बिताकर हम फिर से निकल पड़े एडवेंचर की खोज में, ज्यादातर बार की तरह इस बार भी हिमाचल का ही रुख किया अकेले । अकेले मतलब "सोलो ट्रेवलर" ।
किसी ने यह उपाधि दी तो नही है बल्कि हमने स्वयं ही कैप्चर कर ली । एक दिन हमने फेसबुक ऐप पर हाथ रखकर शपथ खायी और तब से हम बन गये "सोलो ट्रेवलर"। पहले हम समझते थे कि “सोलो मतलब एकदम अकेले, न गाइड, न पोर्टर और न ही कोई साथी”....वो तो बाद में नई परिभाषा पता चली कि सोलो ट्रेवलर मतलब 50 लोगों के ग्रुप में भी आप सोलो ही हो ।
फरीदाबाद के बाद दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी से बचकर अपुन भागे तो सीधा मनाली में रुके । बस स्टैंड पर स्वागत हमेशा की तरफ "सस्ते होटल, शिलाजीत और केसर बेचने वालों ने किया, कभी-कभी तो लगता है ये सब मेरे कमजोर बदन को देखकर फिरकी लेते हैं। अगले दो दिन भयंकर बारिश हुई, मैं नसोगी में ही छिपा रहा। बारिश रोज सुबह शुरू होती और शाम तक गिरती। नसोगी से खनपरी टिब्बा का रास्ता भी निकलता है वाया लामा डुग, जब माउंटेन्स से कॉल आयेगा तब यहाँ भी जायेंगे और आगे बड़ा भंगाल भी ।
अब तक तो मुझे भृगु झील जाकर भी आ जाना चाहिए था, वैसे प्लान यह है कि पहले मैं सोलंग नाला जाऊंगा वहां से सोनू को साथ लूँगा फिर निकलूंगा लावे लश्कर के साथ । दो दिन बाद मौसम साफ हुआ और सुबह 11:30 मैं सोलंग पहुंचा । ब्रेकफास्ट वगैरहा करने में एक बज गया, अपना साथी लेट था इसलिए हमने आज यहीं रुककर कल निकलने का प्लान-बी बनाया । आफ्टरनून वाक के चक्कर में मैं सोलंग से पैदल ही 14 मोड़ तक निकल गया, 14 मोड़ गुलाबा से 3 किमी. आगे आता है । यहीं से सड़क आगे लाहौल-स्पीती के गेट ‘रोहतांग’ जाती है और पगडण्डी भृगु झील के आंगन में ।
ऊँचाई 3008 मीटर है और दृश्य लाजवाब यहाँ से, अगर वहां खड़े हो तो देखो आपको गर्दन घुमाते ही हनुमानटिब्बा दिखेगा, फिर तेंतु पास, लदाखी, कुल्लू पीक, मुकर बह के आगे फ्रेंडशिप पीक और पतालसू, बायीं तरफ खनपरी टिब्बा, मनाली और अंजनी महादेव, रोहतांग और मढ़ी का नजारा कम्पलीमेंट्री है ।
अगले दिन हम तैयार थे विद पैक्ड लंच, तीसरे फ्रेंड ने हम दोनों को कार से गुलाबा छोड़ दिया, जहाँ से आगे का रास्ता पैदल था। चलते-चलते मैंने उसके साथ असली वाला ब्लूप्रिंट शेयर किया “सोनू भाई आज भृगु जायेंगे और आज ही वापस सोलंग आ जायेंगे”, उसने ज्यादा कुछ नहीं बोला सिवाय “कोई चक्कर नी भाई जी, चल पड़ेंगे” । चलते-चलते मैंने बाकी जानकारी शेयर करी “हमारा रूट गुलाबा से शुरू हुआ है जो सीधा झील तक जायेगा, वहां से वशिष्ठ उतरेंगे, फिर बरुआ गाँव पहुंचेंगे वाया नेहरु कुण्ड, और एंड में अंजनी महादेव जाकर सोलंग में सफर खत्म करेंगे” । वो मुझे ऐसे देख रहा था जैसे बोलना चाह रहा हो “इतना लम्बा रास्ता, किसी कीड़े ने पिछवाड़े में काट लिया है क्या?” ।
रास्ता बहुत लम्बा है एक दिन के हिसाब से, दोनों बार-बार आँखें टिमटिमा रहे थे । वो मुझे और मैं उसे देख रहा था, थूक निगलते हुए हमने 14 मोड़ से स्पीड पकड़ी । भृगु लेक पहुंचने के मुख्यत दो रास्ते हैं, पहला वशिष्ठ से और दूसरा 14 मोड़ (गुलाबा) से । सुना है वशिष्ठ से झील इतनी दूर है कि आदमी अगले जन्म में ही पहुंचता है, कभी-कभी तो लोग रास्ते में ही बुजुर्ग हो जाते । झील पर समय पर पहुंच गये तो ठीक नहीं तो भृगु पर सबसे ज्यादा लोग रास्ता भटकते हैं डीयू टू...टू मच फोग ।
अब तक हमें 2 बड़े ग्रुप मिल चुके हैं, पहले ग्रुप में एक कपल है लोकल गाइड के साथ, दूसरा ग्रुप 7 लोगों का है, सभी के लिए अपने भारी शरीरों को ढोना व्यक्तिगत चेलेंज बन गया है और तीसरा ग्रुप जिसे बरात कहना ज्यादा ठीक होगा इंडिया हाईक का था जिसमें लगभग 40 लोग रहे होंगे। ग्रुप में कैक्टस जैसे लडके व् अलोविरा जैसा लडकियाँ थी और सभी 10 कदम बाद 20 करोड़ सेल्फियाँ खिंच रहे थे । हमने सभी को ओवरटेक करने में पिछवाड़े तक का जोर लगा दिया ।
रौली खोली में लगे टेंट बता रहे थे कि बरात यहीं रुकने वाली थी, सोनू ने बताया कि “यहाँ एक स्थानीय की दूकान है जिसमें रुकने और खाने की व्यवस्था हो जाती है”। यह बढ़िया जानकारी थी जोकि सोलो टूरिस्ट्स के खूब काम आयेगी । बस दोस्तों ऐसी ही जानकारी देता रहूँगा अपना प्यार कम मत होने देना ।
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ये रही वो दूकान |
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धुंध, बर्फ और हम |
भृगु झील की ऊँचाई ज्यादातर ऑनलाइन प्लेटफोर्म पर 4300 मीटर बताई जाती है, लेकिन मेरे डाटा के हिसाब से झील की ऊँचाई 4182 मीटर है । बताते हैं कि “ऋषि भृगु झील के पास तपस्या करते थे, इस कारण स्थानीय इसे पवित्र झील के रूप में पूजते हैं” । यह भी कहा जाता है कि “यह झील कभी पूरी नहीं जमती” । किसी मैप में देखा था कि यहाँ एक पास है जिसे क्रोस करके हमता की तरफ निकल जाते हैं, जिसके बारे में सोनू को भी कोई जानकारी नहीं थी । “इन दूर दिखते पहाड़ों पर पास-ही-पास हैं”, बोलकर वो जूते उतारता है ।
सोनू स्थानीय है, वो घर से लायी धूप जलाता है, झील और साथ ही बने छोटे से ओपन रूफ मन्दिर पर जूते उतारकर आने को कहता है, मैं ऐसा ही करता हूँ । झील अभी भी लगभग जमी हुई है और धुंध के बीच रहस्यमयी महसूस हो रही है । ज्यादा वक्त न गंवाते हुए हम वशिष्ठ की तरफ चल पड़ते हैं । अब उतराई है तो हम चल नहीं बल्कि भाग रहे हैं, डेढ़ घंटे में हम मोरी डुग (2885 मीटर) पर पहुंचकर साथ लाये पराठे खाकर वापस रफ्तार पकड़ते हैं । मोरी डुग से वशिष्ठ पहुंचने में हम सिर्फ 35 मिनट का समय लेते हैं । अब तक शरीर का शहद निकल चुका है, यहाँ तक 21 किमी. की दूरी तय की जा चुकी है, आगे अभी भी हमें 11 किमी. और चलना है ।
नेहरु कुण्ड के बाद बरुआ पार हो जाता है, शाम के 5 बज चुके हैं और थकावट दोनों पर असर दिखाने लगी है । सोनू बरुआ से सीधा सोलंग चला जाता है जबकि मैं सीधा अंजनी महादेव निकल जाता हूँ और सवा छह बजे कैंप साईट पहुंचता हूँ जहाँ सोनू चाय के साथ स्वागत करता है और इस प्रकार एक दिन में भृगु झील की यात्रा समाप्त होती है ।
वाह लाजवाब रोहित भाई। हम लोग तो 2900 मीटर से वापस लौट आए थे वशिष्ठ
ReplyDelete2900 मीटर तक जाना भी अपने आपमें साहसी काम है।
ReplyDeleteआप कमाल का लिखते हैं, pic भी जोरदार हैं लेकिन पोस्ट का बड़ी जल्दी दी एंड कर दिया.
ReplyDeleteसर अब उम्र हो गयी है लिखा नही जाता
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