25 जुलाई 2019
घूमने के लिए पूरी दूनिया पड़ी है और हमने भी विचारों की दूनिया में समस्त गैलेक्सी घूमने के बाद तय किया कि “चलो सर पास”। जम्मू से पुराने साथ अरुण जसरोटिया और नारकंडा से अति प्राचीन साथी नवीन जोगटा के साथ भारी मानसून के बीच हम तीनों ने पहली बार सर पास पार किया । चलो शुरू करते हैं भारी बारिश और भारी बैगों से टूटती कमर और टांगों की कहानी ।
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पहले टॉप से दिखता खूबसुरत नजारा |
अरुण से पिछले कई हफ्तों से फोन पर बातचीत का दौर जारी था मुद्दा सदा “कहाँ घूमने चले?” से शुरू होता । अरुण ने कश्मीर ग्रेट लेक्स या मचैल माता से ज़न्स्कर का ब्लूप्रिंट तैयार किया जिसपर मेरा सदैव यही बड़बड़ाना रहा “हम्म सोचते हैं कुछ, करते हैं कुछ” । समय बीतता गया और आखिरकार तय हुआ कि “सर पास से पिन पार्वती पास चलते हैं” । अरुण ने जम्मू से बस पकड़ ली और इधर से मैंने नवीन को कॉल कर दिया जिसने आनन-फानन में नारकंडा से बस पकड़ी ।
सभी ने इजराइल की शीतकालीन राजधानी कसोल में मिलना तय किया । नवीन सबसे पहले पहुंचा, जिसने पहुंचकर मणिकर्ण गुरूद्वारे में डुबकी लगायी व पास ही 100 रूपये के कमरे में कुछ घंटे आराम भी कर लिया । मैं मनाली से कसोल पहुंचा । बारिश हो रही है, इजरेली यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं । बारिश और तेज हो गई मानो विदेशियों को पार्वती में बहाना चाहती है । अरुण को थोड़ा टाइम लगा पहुंचने में और आखिरकार हम तीनों ठाकुर भोजनालय पर मिले । लंच निपटाकर हमने ट्रेक के लिए जरुरी चीजें जुटाई जैसे, ड्राई फ्रूटस, कुछ पैकेट मैगी, और चोकलेट ।
समस्त खरीदारियों के बाद वक्त आया इस सामान को अपने-अपने बैगों में भरने का । मैंने और नवीन ने एक-दूसरे को अनजानी नजरों से देखा फिर अरुण के बैग पर नजर डाली । हमने मन ही मन स्वीकार कर लिया कि “इस ट्रिप पर भारी वाला एडवेंचर होने वाला है” । अब स्थिति यह थी कि 3-मेन टेंट मेरी बगल में था और नवीन के पास सारा राशन ।
कसोल से ट्रेक दोपहर ढाई बजे शुरू होता है । कसोल 1577 मीटर की ऊँचाई पर पार्वती नदी के साथ स्थित है । नवीन का बोलना है “इजरेली ही इजरेली हैं”, जिसपर हमारा सोचना है कि “बिना वीजा के हम घुस कैसे आये विदेश में?” । अस्त-व्यस्त सामान को ढोते-ढोते जब घंटे भर से ज्यादा हो गया तो समस्त खाद्य सामग्री को मैंने और नवीन ने अपने बैगों में ठूंस लिया । टेंट अभी भी मेरी बगल में था, रकसैक का गुर्दा फटने को था और हमारी टांगों का तेल सूखने को ।
कसोल से ग्राहन के बीच कुछ किमी. तक सडक बनी है, सडक ऐसी है अगर गाड़ी उसपर चले तो 3 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलेगी लेकिन उस वक्त जब आपके कंधें छाती में घुस रहे हों तब अगर आपको लिफ्ट मिल जाये तो यह सड़क नेशनल हाईवे माफिक दिखने लगती है । फोर बाय फोर जीप ने हम तीनों को लोड कर लिया । गाड़ी में दो लड़के थे, दोनों ही केरला से हैं और ग्राहन गाँव में रेंट पर कैफ़े चलाते हैं । गाड़ी से उतरने के बाद उन्होंने अपने कैफ़े आने का न्यौता दिया । फिर से हम पैदल चल रहे थे, अब सिंगल ट्रेल थी । हम उनके कैफ़े न जाने के बारे में बात कर रहे थे क्योंकि हमारा बॉब मारले कल्ट से कोई सम्बन्ध नहीं था ।
कसोल से आगे चलकर एक स्थान और आता है जिसका नाम थुन्जा है, यहाँ से ग्राहन भी पहुंच सकते हैं और शोरा कुण्डी पास क्रोस करके रसकट भी पहुंच सकते हैं । रसकट मणिकर्ण और बर्शेनी के बीच स्थित है । अब इसी प्रकार मणिकर्ण से तोश भी पैदल पहुंचा जा सकता है वाया सरगी पास ।
कसोल से जीप ट्रैक लगभग 6 किमी. तक चलता है फिर सिंगल ट्रेल है गाँव तक, जिसकी दूरी 2.5 किमी. है । जीप से उतरने के बाद लगातार चढ़ाई है, मुझे और नवीन को खच्चर वाली फीलिंग आ रही है वहीँ अरुण को जब-जब देखते वो हर बार यही बोलता “रुक क्यूँ गये चलते रहो” । रास्ते में हमें 2 वेल्डिंग वाले मिले, दोनों पसीने में भीगे थे और मशीनी तरीके से उस इंसान को गालियाँ बक रहे थे जिसने उनसे कहां था कि “यहीं तो है गाँव, बस आधे घंटे में पहुंच जाओगे” । दोनों ने भारी-भारी मशीनें उठा रखी थी, उन्हें यूँ देखकर मुझे दया आई । आखिर एक खच्चर ही दूसरे खच्चर का दर्द समझ सकता है ।
गाँव से थोड़ा पहले आई छोटी सी टपरी में चाय पीकर हम गाँव शाम 5 बजे पहुंचे । टेंट की जगह ढूंढते-ढूंढते हमने ग्राहन गाँव से लगती एक जगह जिसका नाम पुल्गी था पर डेरा डाला । टेंट लग गया और पास ही के होम स्टे में लड़का लोगों ने चाय-मैगी का सेवन किया । गाँव का माहौल बिल्कुल भी हिमाचली गाँव जैसा नहीं था, यहाँ भी जहाँ देखो इजरेलियों का रेला था । नवीन जोकि गिटार बजाना जनता है ने एक इजरेली के साथ गिटार बजाकर हम सबका खूब मनोरंजन किया, जबकि इंसानियत और देश की अर्थव्यवस्था से जुडी बाते मुझे आसपास उगी भांग के कारण महसूस हुई । 8 बजे रात डिनर के बाद हमने स्लीपिंग बैग में घुसकर आँखें बंद करी । इस लम्बी यात्रा का पहला दिन सकुशल सम्पन्न हुआ ।
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सामने पुल्गी है और पीछे ग्राहन गाँव |
डिनर के वक्त मुझे तरुण गोएल की बात याद आई, उन्होंने बताया था कि “सर पास से डेढ़ दो किमी. दूर एक झील है, हो सके तो जाकर आना फिर हमको भी लेकर चलना” । होम स्टे के मालिक ने झील का नाम रुडुक सौर बताया जोकि एक नीले पानी की झील है । आगे जिस प्रकार उन्होंने झील को परिभाषित किया उससे मुझे उनकी बातें दन्त कथाएं प्रतीत हुई ।
कसोल से ग्राहन गाँव (2300 मीटर) तक दूरी 8.5 किमी. है 946 मीटर का हाईट गेन के साथ । हम ढाई बजे चलकर यहाँ शाम 6 बजे पहुंचे । रहना और खाना थोड़ा महंगा है, आप चाहो तो अपना टेंट व राशन भी ले जा सकते हो । गाँव के बहुत से घर अभी भी मिटटी, पत्थर और स्लेट के बने है । गाँव बेहद सुंदर व शांत है सिवाय रात के जब हमें शायद किसी पार्टी का लाऊड म्यूजिक सुनाई दिया । यहाँ सेबों के साथ भांग भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध है, जिसके बारे में स्थानियों का कहना है कि “ये तो जंगली है अपने आप उगती है” ।
अगली सुबह साढ़े छह बजे उठकर हमने टेंट पैक किया, पराठों का नाश्ता और छह पराठे रास्ते के लिए पैक करा लिए । यहाँ का खर्चा 1500 रूपये हुआ, आप यकीन मानोगे हम तीन लोगों ने 2 मैगी, 6 चाय, डिनर, ब्रेक फ़ास्ट और पैक्ड लंच लिया सिर्फ । खैर अरुण ने खजांची होने का कर्तव्य निभाया और हमने ग्राहन साढ़े नौ बजे छोड़ा ।
शुरू में ही हम रास्ता भटक गये । जंगल में घुसते ही हमें गाँव का एक लड़का मिला जिसने हमें सही रास्ते के बारें बताया और तुरंत ही हम वापस गाँव की ओर मुड गये । लड़के ने यह भी बताया कि “यह रास्ता भी सर पास जायेगा लेकिन आप लोगों को एक दिन एक्स्ट्रा लग जायेगा यहाँ से” । अब एक्स्ट्रा हम पैसों के अलावा कुछ नहीं लेते । जिस अंकिल के यहाँ डिनर किया था उन्होंने भी इस रास्ते के बारे मे बताया था कि “यहाँ एक पास और है जिसका नाम खोली पास/खुली गलू (3440 मीटर) है लेकिन अब कोई उस तरफ नहीं जाता । एक बार नेताओं के लड़के उस रास्ते पर मौत का शिकार बने थे” । हो सकता है भविष्य में इस पास की तरफ भी जाया जाये ।
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चढ़ाइयों का शुरू होता दौर |
सही रास्ते पर लौट चुके हैं, ग्राहन से ही चढ़ाई शुरू होती है जो पहले टॉप तक कायम रहती है । पहला टॉप नगारु के बाद आता है और दूसरा टॉप स्वयं सर पास है । पिछले कुछ दिनों से होती बारिश ने रास्ता फिसलन भरा बना दिया है । जल्द ही हम जंगल में प्रवेश जाते हैं और धीमी गति से चढ़ाई चढ़नी शुरू करते हैं । चलते-चलते बोतल का पानी खत्म हो जाता है बाद में बॉडी का । भारी बैग बार-बार हिनहिनाने पर मजबूर कर रहा है । नवीन और मेरी स्पीड ठीक है जबकि अरुण की स्पीड थोड़ी स्लो है । पिछली बार से उसकी फिटनेस इस बार बिल्कुल सही नहीं है । अचानक हम जंगल के बीच स्थित भांग के खेतों में पहुंच जाते हैं, सभी को अचरज होता है कई कनाल खेती को देखकर । हम कुछ देर बैठकर अंदाजा लगाते हैं कि “यहाँ कितना माल होगा?, अंदाजा 10 करोड़ पार जाता है”, जिसका श्रेय में वहां उड़ती नशीली मुश्क को देना चाहूँगा ।
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स्वर्ग में आपका स्वागत है |
डेढ़ घंटे की घुटने तोड़ परफोर्मेंस के बाद मीन थाच (3000 मीटर) पहुंचते हैं, यहाँ दो भेड़-बकरी वाले हैं जो पहले टॉप तक जा रहे हैं । हमने उन्हें बोल दिया कि "शाम को मिलते हैं आपके डेरे पर" । उनकी और भेडूओं की चाल में कोई फर्क नहीं है । वो लोग धीरे-धीरे चलते हुए हमारे जत्थे को टेक ओवर कर जाते हैं ।
मीन थाच के बाद स्थित एक छोटे से ओपन रूफ टॉप मन्दिर के पास बैठकर हम पराठे खाते हैं और आगे बढ़ने से पहले कितना धीरे चलना है इस मुद्दे पर विचार करते हैं । आधे घंटे बाद बारिश शुरू हो जाती है, अब हम बरसातियों में हैं । टेड़ी कमर के साथ इस उम्मीद में आगे बढ़ रहे हैं कि जल्द ही बारिश बंद होगी और गद्दियों का डेरा आयेगा । मैं और नवीन फिर से आगे हैं और अरुण पीछे किसी स्थानीय से बातें करते हुए हमारी तरफ बढ़ रहा है । अब तक हम ट्री लाइन से ऊपर आ चुके हैं वहीँ अरुण व स्थानीय भी हम तक पहुंच चुके हैं । वह लड़का भी गद्दियों के डेरे की तरफ जा रहा है, हमारे लटके हुए चेहरे देखकर वो घोषणा करता है कि “नगारु तक ही आपको 3 घंटे लग जायेंगे” । कुछ बारिश ने कुछ लड़के की भविष्यवाणी ने हमारा सारा जोश ढेर कर दिया है ।
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मीन थाच |
बारिश तेज है व विजिब्लिती भी कम होती जा रही है । लगभग दोपहर एक बजे हम नगारु पहुंचते हैं, अरुण यहाँ पहुंचते ही डिक्लेयर करता है कि “बाबा टेंट यहीं लगाते हैं”, जिसपर मैं नवीन को और नवीन मुझे देखता है । मैं उसे यह बोलकर लालच देता हूँ कि “गद्दी के डेरे में चाय मिलेगी वो भी गर्म" और बोलकर आगे चल देता हूँ । दोनों मेरा पीछा शुरू कर देते हैं । बादल हटते हैं तो पहला टॉप दिखाई देता है साथ में ऊपर कुछ लोग भी दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर टेड़ी कमर फिर से सीधी हो जाती है । मैं स्पीड बढ़ाता हूँ, नवीन अपनी स्पीड से चल रहा है । दूर से देखने पर अरुण चल रहा है या नहीं यह बता पाना मुश्किल था ।
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अरुण नवीन को यह समझाते हुए कि "पिन पार्वती पास तो मैं उड़कर भी जा सकता हूँ" |
पूरे एक घंटे धुंआधाड़ बारिश में भीगने के बाद मैं पहले टॉप पर पहुंच जाता हूँ लेकिन वहाँ किसी को न पाकर मेरी सारी उम्मीदें टूट जाती हैं । तेज बारिश के कारण कुछ नहीं दिखाई दिया । टॉप पर मैं इस प्रकार भागता हूँ जैसे मेरे पैसे खो गये हो । यहाँ ऊँचाई 4000 मीटर क्रोस हो चुकी है, बारिश का पानी सीजफायर का उल्लघन करके सेफ हाउस तक पहुंच चुका है । भीगने से 40 किलो शरीर नेपकिन की तरह फड़फड़ा रहा है । कुछ ही देर में नवीन भी आ जाता है, दोनों मिलकर फिर से डेरे को ढूंढने का बेअसर प्रयास करते हैं । अगर डेरा मिल भी जाता तब भी हमें अरुण का वेट टॉप पर करना पड़ता नहीं तो वो टॉप से रास्ता ही भूल जाता । और थोड़ा भीगने के बाद हम टॉप पर ही टेंट लगा देते हैं, लगाने-लगाने में ही टेंट में कई लीटर पानी घुस जाता है ।
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नगारु के बाद पहले टॉप पर अपना टेंट |
कपड़े बदलने में हम तनिक भी देर नहीं लगाते, हम स्लीपिंग बैग में हैं और अरुण का वेट कर रहे हैं । हमारे तीसरे साथी की आवाज सुनाई देती है “बाबा टेंट का गेट खोलो” । वह भी अपने कपड़े चेंज करता है और अगले कुछ ही मिनटों में तीनों अपने-अपने स्लीपिंग बैग में घुस जाते हैं । बाहर बारिश अभी भी जारी है, मुझे उम्मीद है कि मौसम साफ होने पर शायद हमें आसपास डेरा दिखाई देगा । 3-मेन टेंट में मैं बीच में हूँ, जब भी लेफ्ट-राईट में दोनों को देखता तो दोनों की ही आँखें बंद मिलती । मुझे नवीन को जगाये रखने में काफी मेहनत और कुछ कोहनियों का इस्तेमाल करना पड़ा । घड़ी तापमान 1.5 डिग्री दिखा रही है । आखिरकार शाम सवा पांच बजे मौसम साफ होता है, बाहर सूरज ढल रहा है । मैं और नवीन टेंट से बाहर आकर फोटोग्राफी करते हैं और अंदाजा लगाते हैं कि पास किस दिशा में होगा? । मौसम लगभग साफ है फिर भी हमें डेरे का अंदाजा नहीं लगता, हाँ बहुत दूर बर्फ के नीचे कुछ भेडू जरुर दिखाई देते हैं ।
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बारिश बंद होते ही |
टेंट में वापस आकर हम पैक्ड पराठा खाते हैं और न जाने कितने बजे सो जाते हैं । ग्राहन गाँव से पहले टॉप तक दूरी 10.34 किमी. है जिसे तय करने में साढ़े छह घंटे का समय लगा, यहाँ की ऊँचाई 4121 मीटर है और एलेवेश्न गेन 1884 मीटर हुआ है । मजे की बात यह है कि यह टॉप सर पास से भी ऊँचा है ।
अगली सुबह बिना कुछ खाए हम साढ़े आठ बजे ट्रेक शुरू करते हैं । पूरी रात बारिश होती रही, अच्छी बात यह रही की हवा नहीं चली । फिर से गीले कपड़े पहनकर तीनों तैयार थे सर चढ़ने को । कल जो चिंगारियां तीनों की आँखों में दिखाई दे रही थी अब वहाँ “चाय चाहिए” का उद्घोष दिखाई दे रहा है । बारिश हो रही है और मोबाइल जीपीएस का पीछा करते हुए हम चल पड़े हैं इस आशा में कि डेरा मिलेगा और हमें कुछ खाने को और पीने को दिया जायेगा ।
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तीन भीगते इडियट्स एट फर्स्ट टॉप |
लगभग आधे में हम डेरे पर पहुंचते हैं, यह ग्राहन से सर पास के बीच अकेला डेरा है । बड़ी आशाओं के साथ हम यहाँ पहुंचते हैं लेकिन कोई मदद नहीं मिलती । भेड़पाल भीगती भेड़ों के पीछे-पीछे भाग रहे हैं, डेरा खाली है वहाँ कोई नहीं है । नवीन की बात गद्दी से होती है, वो बताता है कि “दूर वो जो धार दिखाई दे रही है वी शेप में वही पास है” । बिना देर किये हम आगे चल पड़ते हैं, चलते-चलते बातचीत का मुद्दा यह है कि “पार्वती घाटी के भेड़पाल इतने मतलबी क्यूँ हैं”, जिसपर नवीन का कहना है “लालची हैं आरो” ।
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भेडूओं के पीछे भागते पाल |
पगडंडी का पीछा करते-करते हम सवा ग्यारह बजे सर पास पर पहुंचे, यहाँ पहुंचकर हम तीनों को ही अचरज हुआ । पास पर न झंडा, न कोई त्रिशूल, न कोई मन्दिर...मतलब कुछ भी नहीं, ऐसा लगता है जैसे स्वच्छ भारत आन्दोलन का काफी असर हुआ है । यहाँ से नीचे कुछ डेरे दिखाई दे रहे हैं लेकिन अब यह समझ नहीं आ रहा कि “क्या हमें वहीं जाना है या और ऊपर चढ़ना है?” । करीब 30 मिनट अलग ही दिशा में एडवेंचर करने के बाद फाइनली हम सही रास्ते पर आते हैं । 10 मिनट का ब्रेक लेते हैं, ड्राई फ्रूट खाते हैं और भीगते-भीगते आगे की योजना पर विचार करते हैं । अगले 30 मिनट में हम गद्दी डेरे पर पहुंचते हैं जहाँ भी कोई चाय नहीं मिलती । ये लोग बताते हैं कि “याई (YHAI) के ग्रुप चले थे इस बाद बड़े भारी, एक लड़की भी मारी गई थी । चाय बिस्केरी से थोड़ा नीचे गुज्जर डेरा है वहां मिल जाएगी” । राम राम के साथ अलविदा ली चाय की तरफ ।
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सर पास पर लांच होने की फिराक में बाबा |
आगे का रास्ता चिकड़ से ओत-प्रोत था, हर कदम पर कई किग्रा. मिटटी जूतों से चिपक रही थी । अब तक फिर से हम गलत रास्ता ले चुके थे और जानकार भी इसी पर आगे बढ़ रहे थे । नाले के साथ-साथ चलती धार पर हम उतर रहे थे जोकि बहुत फिसलनभरी थी । मोबाइल जीपीएस भी हमें भरपूर गलियां दे रहा है सही रास्ते पर आने के लिए । डेढ़-दो घंटे जंगल में भटकने के बाद आख़िरकार हम गुज्जर डेरे पर पहुंचते हैं ।
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गुज्जर डेरा |
गुज्जरों से बात होती है, हम चाय मांगते हैं जिसपर उनका कहना है “दूध पियो चाय में क्या रखा है” । दूध सुनकर तीनों की आँखों में क्रांति की ज्वाला फिर से जलने लग जाती है । डेरे में घुसते हैं, गीले कपड़े उतारकर दूध का मजा लेते हैं । यहाँ के ठाट-बाट देखकर अरुण आज यहीं रुकने की घोषणा कर देता है, मैं नवीन की तरफ देखता हूँ तो वो भी आँखें चुराता दिखाई देता है । खैर दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद हम यहीं रुकना तय करते हैं । दूध के बाद हम मैगी बनवाते हैं और रात को दाल-चावल का डिनर करके वहीं सो जाते हैं ।
यह लोग कटौला के रहने वाले हैं और सर्दियों में पंजाब चले जाते हैं । जानवरों के दूध, घी, और पनीर को ये लोग पुलगा और मणिकर्ण में बेच आते हैं । कुल मिलाकर हमारी अच्छी आवभगत हुई । इस स्थान का नाम पंखू है और ये लोग पुलगा का रास्ता यहाँ से दो घंटे में तय करते हैं । अगली सुबह बारिश थम गई और हम धीरे-धीरे पुलगा की तरफ बढ़ने लगे ।
अरुण ने अपने कम स्टेमिना की वजह से यह तय किया कि “मैं आगे का सफर तय नहीं करूंगा और यहीं से वापस जम्मू निकल जाऊंगा” । काफी वाद-विवाद के बाद उसके इस मुद्दे पर हमने यह कहकर मुहर लगाई कि “वो धौकेबाज है” ।
दोपहर 12 बजे तक हम पुलगा पहुंचे, यहाँ का नजारा कसोल से ज्यादा उत्तेजित था । भांग यहाँ जमीन पर ही नहीं बल्कि छतों पर भी उगी थी और शायद छाती पर भी । जहाँ तक नजर जाती थी वहां भांग और इजरेली ही दिखाई दे रहे थे । बरशैनी में हमने लंच किया और यहीं से हमने अरुण धोकेबाज को अलविदा कहा ।
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चढ़ाई है, लड़ाई है |
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बर्फ पिघलाते डोक्टर साब |
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धुंध में झांकता सर पास |
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तेल मांगने जाते हुए शनिदेव |
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वजन उठाने की कला से प्रभावित होकर इस बंदे की बोली लगनी शुरू हो गई है |
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डॉक्टर साब फिटनेस और बारिश से जूझते हुए |
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सर पास से नीचे दिखते गद्दियों के डेरे |
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अंकिल पूछ रहे हैं कि "बीड़ी हो तो पिला दो बाकि चाय बिस्केरी से नीचे मिलेगी" |
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10 बट्टा 10 परफोर्मेंस देते जसरोटिया जी |
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गुज्जर डेरा (पंखू) |
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पुलगा की ओर |
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पुलगा में स्थित पारम्परिक मंदिर |
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वुडेन हाउस एट पुलगा |
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बरशैनी |
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जहाँ आसमान में भी भांग उगाई जाती है |
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बरशैनी में लंच |
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कसोल से बरशेनी ट्रेक डिटेल्स |
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Elevation Profile of Sar Pass Trek |
Nice informative post with beautiful pictures.
ReplyDeleteजी सहगल साब, यहां पहुंचने में कोई दिक्कत तो ना हुई, अगर हुई हो तो बता देना गूगल से बोलकर नक्शा बिछवा देंगे खास आपके लिए
DeleteAap sabne to Kamal kr Diya subanallaah
ReplyDeleteजय श्री राम
Deleteसर ऐसी धुंआधार परफॉर्मेंस देने में आपको तो रोज़ का पूरा एक पत्ता बवंडर कैप्सूल लग जाता होगा।
ReplyDeleteसाथ में एक किलो शिलाजीत भी खाना पड़ता
Deleteहमारे साथ भी एक धोखेबाज दोस्त गया था जो नगरू से वापिस ले आया सबको।😑
ReplyDeleteएक ना एक बोबा मार्ले सबके साथ होता ही है 😂
ReplyDeleteAmazing Trek, must have yo try once
ReplyDeleteजाने वाले को कौन रोक पाया है
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