बुद्धिष्ट और हिन्दुओं की आस्था का संगम "मचैल यात्रा" (Confluence of Buddhas and Hindus faith "Machail Yatra")
मचैल यात्रा हर साल अगस्त में शुरू होती है । मचैल मंदिर हिन्दू देवी
दुर्गा को समर्पित है और जम्मू-कश्मीर राज्य की किश्तवाड़ डिस्ट्रिक में स्थित है, यहां की ऊँचाई 2958 मी. है । पाडर घाटी और चेनाब की सुन्दरता में पल
रहे इस स्थान की सुन्दरता को शब्दों में ब्यान कर पाना असम्भव है । एक तरफ यह घाटी
नीलम की खदानों के लिए प्रसिद्ध है वहीं दूसरी और बेतहाशा सुंदर ट्रैकों का कोई
तोड़ नहीं ।
धन्यवाद और शुभकामनाएं अरुण जसरोटिया को जिन्होंने हाल ही में माँ मचैल माता की यात्रा सम्पन्न करी ।मेरे कहने पर अपना अपना यात्रा वृतांत हमें लिखकर भेजने के लिए एक और धन्यवाद । मुझे सहर्ष ख़ुशी हो रही है इस यात्रा को पब्लिश करने में, जय माँ भगवती ।
हर साल की तरह इस बार भी “मचैल
माता मंदिर” जाना है और जब भी कहीं
जाना हो, तो
सबसे पहले जिसका नाम दिमाग में आता है वह पिछले 6 साल से मेरे साथ है, मेरा
बिजनिस पार्टनर, मेरा छोटा भाई “बबल” ।
‘बबल
का खौफ’....
एक बार चादर ट्रैक जाने वाला था । बाबाजी फरीदाबाद में वेट कर रहे थे, फ्लाइट लेह उड़ने का वेट कर रही थी, और
मैं ट्रेन का वेट कर रहा था दिल्ली पहुंचने के लिए । “बबल” ने
वही किया जिसका डर था, मेरी ट्रेन छूट गयी और बाबा को अकेले
चादर करना पड़ा । अनेक गलियां तो मेरे नहीं पहुंचने पर मुझे मिली होंगी और करोड़ों
बाबाजी ने तब दी होंगी जब मैंने फ्लाइट की टिकट के पैसे 6 महीने बाद लौटाये ।
दूसरी बार प्लान बना शिमला का अमित माथुर के साथ । अमित मेरा चंडीगढ़
वेट कर रहा था और मैं ट्रैकिंग बैग, स्लीपिंग
बैग के साथ घर से निकल पड़ा । बड़ा जुनून था शिमला के पहाड़ घूमने का, ट्रैकिंग का, फोटो खींचने का और हाटू
पीक जाकर कैम्पिंग करने का । एक बार फिर बबल में उठे बुलबुले की वजह से मुझे
पठानकोट से वापिस आना पड़ा ।
ऐसे बहुत से प्लान “बबल” महराज
ने मिट्टी में मिला दिए । बबल बेशक मेरा दोस्त है लेकिन ऐसी स्थिति में लौंडा
भस्मासुर बन जाता है, हर
प्लान को नम्बरिंग में हि भस्म कर देता है । पर हमारा प्यार सच्चा है पहाड़ों से, ऐसे हमारा कीड़ा मानने वाला नहीं । माउंटेन कोंकरर तो नहीं लेकिन तब
तक घूमेंगे तब जब पहाड़ खुद में न घुमा दे ।
तड़के 03:25 (01 सितम्बर 2018) पर सफ़र शुरू होता है “मचैल यात्रा” का, इसमें
मेरा साथी है “भानू प्रताप सिंह”, वो
मेरा चादर ट्रेक का साथी भी रह चुका है । भानू को सिर्फ ये बोलना पड़ता है कि “भाई
कल निकलना है”, जिसपर उसका
रिप्लाई होता है “कितने बजे?” ।
03:25 की सुबह यात्रा शुरू हो गयी और लगातार साढ़े नौ घंटे गाड़ी दौड़ाकर हम गुलाबगढ़
पहुंचे ।
दिमाग में थोड़ा डर चल रहा था क्योंकि 8-10 दिन पहले 2 मेजर रोड
एक्सीडेंट हुए थे जिसमें 15-20 लोगों की जान चली गयी थी । पूरा पहाड़ ही बस के ऊपर
गिर गया था और एक कार तो चेनाब के गर्भ में समा गयी 300 फीट नीचे । 9 घंटे की
लॉन्ग ड्राइव बिना ब्रेक के । नो फ़ूड, नो
ड्रिंक एंड नो मूत्र विसर्जनिंग ।
दोपहर 12:30 हम पहुंच गये गुलाबगढ़, गुलाबगढ़
से मचैल लगभग 35 किमी. दूर है । पहाड़ों को काट कर 7 किमी. कच्ची रोड बनाई गयी है जिसने
ट्रेक को सिर्फ 28 किमी. में समेत दिया है । मचैल पहुंचने के 2 रास्ते हैं, पहला
बाय फुट 28 किमी. जिसमें कम-से-कम 3 दिन लगेंगे आने-जाने में, दूसरा
ऑप्शन हेलीकॉप्टर है जो मात्र सात घंटे तीस मिनट में मंदिर उतार देगा । लम्बी
मीटिंग और के अभाव में हमने दूसरा रास्ता
चुना और कुछ ही मिनटों में हेली की टिकट हमारे हाथ में थी । हेली का प्रति व्यक्ति
एक तरफ का टिकट 2200 रूपये है । खैर दोपहर 12:30 की टिकट मिली और नंबर आया 03:46
पर ।
दोपहर 03:54 हम माता रानी के द्वार पर पहुंचे । जुनून सुकून में बदल
गया पहुंचते ही । मैं पहले भी कई बार यहां आ चुका हूँ और हर बार यह स्थान मुझे
नयेपन से भर देता है । मचैल गाँव किश्तवाड़ से लगभग 95 किमी. और गुलाबगढ़ से 30
किमी. दूर भूर्ज और भोत नाले में मध्य प्रक्रति की गोद में स्थित है । मंदिर का प्रवेश द्वार सागर मंथन के
कलात्मक दृश्यों से पटा पड़ा है ।
सुबह से भूखे भी भाग रहे हैं और जब ख्याल खाने का आया तभी दूसरा
ख्याल बाबाजी का आया,
उन्होंने कहा था कि “मचैल से पदुम रास्ते के जानकारी लेकर आना” । तो निकल पड़ा मचैल
से पदुम (ज़न्स्कर) ट्रैक की इन्फो लेने कि “कब जाना पोसिबल है? एंड कोई लोकल गाइड मिल जाता या नहीं आदि आदि?” । मचैल से 2 किमी. आगे विलेज है “हंगू” वहां
से आगे एक गोम्पा है नाम भूल गया,
शायद “शेलिंग” था ।
गोम्पा की ओर जाते हुए रास्ते में “प्रेम
सिंह” जी मिल गये, जोकि जानवरों के लिए घास काट रहे थे ।
इनकी कहानी सुनते हुए कब 10-15 मिनट बीत गये पता ही नहीं चला । उन्होंने बताया कि “मेरा
जन्म 1945 का है । 1962 वाली चाइना की लड़ाई में यहां हर जगह गोलियां चली थी । उस वक्त आर्मी
वालों ने अपनी सुरक्षा हेतु मुझे ग्रिनेड चलाना भी सिखाया था” ।
यहां के रहन-सहन के बारे में उन्होंने आगे बताया कि “ज्यादातर
सब्जियां हम लोग यहीं उगा लेते हैं बाकि जो यहां नहीं होती उसे दुकानों से खरीद
लेते हैं” । कपड़ों से प्रेम सिंह गद्दी लग रहे थे
लेकिन फिर भी अपने कठिन परिश्रम के बल पर उन्होंने पढ़ा-लिखकर अपने लड़कों को बाहर
भेजा । उनका एक लड़का सिंगापुर में है और दूसरा दुबई जॉब करता है ।
थोड़ा आगे बढे ही थे कि रास्ते में ताशी मिली, उम्र
35 साल थोड़ी बातचीत हुई उसके साथ :-
मैं : जुले
ताशी : जुले
मैं : आपका नाम ?
ताशी : ताशी (मुझे कन्फ्यूजन हुआ कि ये लेडी बुद्धिष्ट है या हिन्दू?, ड्रेस
हिन्दू पहनी थी और नाम बुद्धिस्ट वाला)
तो मैंने उसको पूछ ही लिया ।
ताशी : मैं जम्मू में काम करती हूँ ।
मैं : क्या काम?
ताशी : कास्मेटिक का । वहां डोडा का एक लड़का मेरे साथ था तो इश्क हो
गया और हमने शादी कर ली ।
मैं : आँखें बाहर आ गयी मेरी तो इस प्रेम कहानी के बारे में जानकर ।
ताशी : घर वालों के अगेंस्ट जा कर शादी कर ली इसलिए मैं बुद्धिष्ट और
मेरा पति हिन्दू ब्राह्माण ।
मेरी नजरों में उसकी रेस्पेक्ट बढ़ गयी, उसके
जज्बे को सलाम करकर मैं आगे बढ़ गया ।
जल्द ही हमने गोम्पा के दर्शन सम्पूर्ण किये । वापिस आते-आते शाम के
6 बज गये, भूख और तेज हो गयी । आसपास 10-15 बुद्धिष्ट घर थे तो सोचा चाय तो मिल ही जाएगी ।
65-70 साल की बुजुर्ग महिला मिली, मैंने जुले-जुले बोला और पूछा कि “चाय
मिल जाएगी क्या?” । सुनकर उन्होंने स्माइल पास करी और
बोली “क्यों नहीं, आइये बैठिये” ।
रूम में बैठा दिया,
अच्छा रूम था साफ़ सुथरा और शांति से परिपूर्ण ।
लेडी : कौन सी चाय लेंगे आप ठंडी या गर्म ?
मैं : नार्मल चाय
लेडी : लिप्टन चाय ?
मैं : हम्म... गर्म लिप्टन
लेडी : ओह
मैं : नहीं है क्या ?
लेडी : देसी दारू मिल जायेगी पियोर वाली, नेचुरल
जों की बनी हुई,
बोलो तो हाजिर करूं? ।
मैं : फ्रेंड मुझे देख रहा था और मैं उसे, मानो आँखों-आँखों में बोल रहे हो कि “आज नहीं हम मंदिर आये हैं” ।
लेडी : यहां सब लोग पीता है आप भी पी लो, सिर्फ
100 रूपये की बोतल है ।
हमने टोपिक छेड़ दिया मचैल टू ज़न्स्कर का, तो
ओल्ड लेडी ने बताया मैं 3-4 बार गयी हूँ जब जवान थी । अब बूढी हो गयी हूँ लेकिन अब
भी दम रखती हूँ जाने का । उसकी इंकलाबी भाषा को सुनकर मुझे एक बार को तो लगा कि “कहीं
इसके भीतर बाबाजी कि आत्मा तो प्रवेश नहीं कर गयी है ।
वहां हासिल हुई जानकारी के हिसाब से मचैल से ज़न्स्कर जाने के 2
रास्ते हैं, पहला है वाया उमसिला और दूसरा जन्नत का
वाया ग्लेशियर । बताते हैं 2 और रास्ते भी हैं लेकिन अभी मुझे उनके बारें में कुछ खास पता नहीं चला । हो सका तो अगली बार बाबाजी के साथ पदुम जाना होगा माता रानी के दर्शन करके ।
इतनी इन्फोर्मेशन लेने पर लेडी को कुछ डाउट हुआ कि ये क्यों इतनी
जानकारी ले रहे हैं ? कहीं टेररिस्ट तो नहीं ? ।
हमने बताया कि हम घूमने-फिरने वाले बन्दे हैं, चादर
ट्रैक के कुछ फोटो दिखाए फिर जाकर कूल हुई लेडी गागा । लेडी को बोला नेक्स्ट ईयर पियेंगे
दारू बाबाजी के साथ बोलकर हम निकल आए,
निकलते हुए मैंने उसका चेहरा देखा था दारू की तरह लाल हो गया था ।
भूख में व्याकुल होकर रास्ते में मिले एक खेत से हमने कुछ दाने राजमाह
के खाकर पेट में होती मैराथन को विराम पहुंचाया । वापस आकर मंदिर में पूजा करी, माथा
टेका और मुड़ने से पहले आखिरी बार इस जन्नत को निहारा मानो माँ का आशीर्वाद मिल गया
हो ।
“अगले साल मुलाक़ात होगी” के उद्घोष
के साथ हमने विदा ली ।
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यह माँ मचैल |
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