बलेनी पास : टपरियों का ट्रैक, सल्ली - बलेनी बेस कैंप (Baleni Pass : The trek of huts, Salli-Base Camp)
20 दिसम्बर 2017 को ‘प्लान’ पैदा हुआ “घूमने जाना है घूमने जाना है बोलते हुए” । रोना रोकने के लिए इसको बोलना पड़ा कि "तेरी माँ करेरी झील पर है", 25 तक प्लान का झुनझुना ‘सरी जोत’ पर लगे त्रिशूल पर लटक गया (रोना और हगना अभी भी कायम है), 27 को कार्टूनिस्ट साहब ने प्लान को फिर से करेरी लेक में कूदा दिया वो भी डाईपर समेत (मरते मरते बचा), और अंत में 28 को जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही प्लान को “माँ बलेनी” के हवाले कर दिया । स्वाहा:
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बलेनी पास ट्रैक 2017-2018 |
बहुत समय पहले की बात है जब हमने (मैं और नूपुर) विंटर विजिट ऑफ़ सोलंग वैली के बारे में सोचा । रोशन ने बताया कि “अभी वहाँ बहुत बर्फ होगी” । वहां मतलब ‘ब्यास कुण्ड’ । फिर मैंने हेमराज (थालटूकोट में रहता है और सोलंग में काम करता है) से बात करी ‘डेन्सर लेक’ जाने के बारें में । “शराब-वराब या भांग-वांग खा-पी रखी है क्या?” उसने छुटते ही बोला । सुनते ही इन्टरनेट पर हाईट देखी 4250 मी. । अपनी बेवकूफी को छुपाते हुए मैंने एकदम से बात बदल दी “अरे मैं तो मजाक कर रहा था, वैसे ‘सरी पास’ तो नहीं पहुंच सकते अभी?”, बोलकर मुझे लगा इस बार हेमराज को यकीन हो ही जायेगा कि मैं धुत्त हूँ” । “सरी तक जा सकते हैं लेकिन बर्फ बहुत होगी”, उसके मुंह से निकले ये शब्द गुरबानी से कम नहीं थे ।
तो सरी जोत जाने का प्लान बन गया लेकिन कुछ ही दिनों में जब बड़का जी (अरविन्द कार्टूनिस्ट) से बात हुई तो उन्होंने करेरी झील चलने को कहा । करेरी झील 2934 मी. पर है और आजकल जमी होगी । तैयारियां करेरी के हिसाब से होने लगी, मैंने मेरे जैसे पतली फ्लीज जैकेट बैग में रखकर तैयारी समाप्त करी ।
अगले दिन बड़का जी ने व्हाट्सएप्प किया कि ‘बलेनी पास’ चल रहे हैं । सामान में बहुत सारा बदलाव करना पड़ा जैसे कि फ्लीज को वापस बैग से निकालना टाइप । अगला मेसेज जो वाया व्हाट्सएप्प प्राप्त हुआ वो इस प्रकार था :
“250 gm green peas chilley hue, chaar pyaj, chaar aaloo, 2 garlic, one adrak, chaar tamatar, 50gm namak, one sapoon, one bowl, one knife, one lighter, one thali, one torch, 250 gm kaale chane bhigoye hue,,, mustrad oil 50gm
This is the list of one person meal for two days two nights,,, aur oopar likhe samaan kaa wait agar paanch kilo se jyada hota hai toh thaali spoon bowl glass skipp kar dein Aur haan 100gm chawal add kar lein”
छोटे से मेसेज की पूति करने में हमें लगभग पूरा दिन लग गया । तय हुआ कि 29 की दोपहर तक निकलेंगे बाद में प्लान में थोडा बदलाव आया कि 30 की सुबह ही निकलेंगे और जहां तक पहुंचेंगे वहीं लठ्ठ गाड देंगे ।
29 की रात को प्लान में थोड़ा और ट्विस्ट आया और वो ये था कि “अब हम 11 बजे बीड़ छोड़ेंगे बैंक का काम कराने के बाद” । अगले दिन 10:30 तक सारा काम निपट गया और सवार हो गये पुराणों से भी पुरानी एक्टिवा पर । 400 का 5 लीटर पेट्रोल और दौड़ पड़े 70 किमी. दूर धर्मशाला की ओर ।
1 बजे टी.टी.एल (वर्ल्ड फेमस “ठाकुर टी स्टाल”) । “इस ठाकुर टी स्टाल ने न जाने कितनों की जिंदगियां आबाद की हैं”, बोलकर बड़का जी ने चाय की चुस्की भरी । ढाई बजे धर्मशाला छोड़ा । 4 बन्दे, 4 भारी रकसैक और एक कार वो भी मारुती 800 । ठुसंम-ठूंस कार को देखकर मुझे शेरपाओ की याद आ गयी । “गाड़ी इतनी बुड्ढी है कि चढ़ाई आते ही अपने-आप बैक गियर में चलने लग जाती है”, बोलकर रॉकी हंसने लगा । अब तो मुझे भी हंसी आ गयी लेकिन ध्यान रहे बड़का जी ने कभी भी शेरपा को अंडरएस्टीमेट नहीं किया ।
शाहपुरा तक पहुंचते-पहुंचते साफ़ हो गया कि “अन्जानी आवाज शेरपा की जंग लगती हड्डियों के चरमराने की है” । रॉकी की माने तो ये आवाज कमानियों से आ रही थी । बड़का जी और रॉकी (पहाड़ों वाला उर्फ़ अमित कटोच) की नौंक-झौंक देखकर मुझे
सल्ली दोपहर 3:45 पर पहुंचे जहां पहुंचते ही सबने दाल-चावल लपेटे चाय के साथ । 10 मिनट बाद शेरपा ‘लेंको जनता थर्मल एंड हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट’ के सामने रुकी ।
एक-एक करके चारों ने अपने-अपने बैग अपने-अपने निजी कन्धों पर टांग लिए । सबके बैग ओवरलोड थे लेकिन ये भ्रम तब टूटा जब मेरी कमर में दर्द शुरू हो गया । तब तो मुझे लगने लगा कि मुझे अपने बैग में टेंट और बाकी बर्तन-शर्तन नहीं भरने चाहिए थे । पैंडुलम देखा है बस टेंट मेरे रकसैक पर ऐसे ही झूल रहा था जो शाम तक मेरे लिए नासूर बन गया ।
सल्ली समुन्द्र तल से 1625 मी. की ऊँचाई पर स्थित है और धर्मशाला से 45 किमी. दूर है । नूरपुर के बाद रास्ता अच्छा नहीं है इसलिए हो सकता है 45 किमी. तय करने में दो से ढाई घंटे लग जाए ।
शाम सवा चार बजे शेरपा को प्रोजेक्ट के पास पार्क करके पैदल सफ़र शुरू किया माँ चन्द्रेला के मंदिर की ओर । सभी धीरे-धीरे और शांति के साथ मंदिर पहुंचे, वो बात अलग है कि सास पहले कदम से ही चाहती रही कि बहू की लप-लप करती जुबान चुप रहे लेकिन ऐसा हो न सका ।
आग जलते ही रॉकी ने भी अपने सवाल की बत्ती में आग लगा दी और सरका दिया कंठी बम बड़का जी की ओर कि "मेनू की है?"।
"तेनूंह की है", बोलते ही बड़का जी ने बम को बेअसर कर दिया ।
चंद्रेला माता मंदिर की दूरी सल्ली से 3.5 किमी. है और ऊँचाई 2075 मी. है । शाम के साढ़े पांच बजे हमने एक टपरी में डेरा डाल लिया । मिस्टर रॉकी ने पहुंचते ही लकड़ी और पानी का इंतजाम कर दिया । जहां नुसरत-फ़तेह-अली खान की कवालियों ने पताका लहरा रखा था वहीँ चाय ने भी धुंआ उठा रखा था । 9 बजे सभी ने अरविन्द जी के हाथों का स्वादिस्ट खाना खाया जिसके मेनू में शामिल थे पुलाव, आलू-मटर की सब्जी, ब्लैक कॉफ़ी ।
रात 11 बजे सभी ने गुड नाईट कहकर अपने-अपने आप को स्लीपिंग बैग में बंद कर लिया ।
अगली सुबह (31 दिसम्बर 2017) जब मैं उठा तब सभी बाहर थे और नाश्ते की तैयारियों में मशगूल थे । आज नाश्ते में सभी को चाय के साथ काले चने खाने को मिले जिन्होंने पूरे दिन खूब ऊर्जा प्रदान करी ।
आज मैंने टेंट को रकसैक में ही डालकर पैक कर दिया और पैकिंग अमेजिंग थी क्योंकि भारी बैग काफी लाइट लग रहा था । जैसे ही बड़का जी ने सारे बर्तन चमका दिया वैसे ही हम निकल पड़े आज के अगले पड़ाव की ओर ।
1 घंटे बाद हमने जहां ब्रेक लिया उस जगह का नाम है ‘धलेध’ यहाँ से एक रास्ता करेरी झील को भी जाता है । करेरी पहुंचने के लिए यहाँ से 3-4 किमी. की दूरी तय करनी होगी जिसमें 700 मी. का हाईट गेन होता है । यहाँ की ऊँचाई 2340 मी. है और चन्द्रेल मंदिर से 2.5 किमी. दूर है । हम यहाँ रूककर बात ही कर रहे थे कि तभी आगे से आते 6-7 बंदूकधारी लोग दिखाई दिए । बात करके पता चला कि ये सभी स्थानीय शिकारी हैं और अभी शिकार से लौटे हैं । सबसे अंत में लौटते हुए एक शिकारी ने रॉकी के सवाल का जवाब दिया कि “इस बार कुछ हाथ नहीं लगा, ऊपर बर्फ ज्यादा है” ।
समय अच्छा है और सामने बर्फ से ढके पहाड़ की धार पर बलेनी पास दिखाई दे रहा है । हवा तेज है और हमने छाला में रूककर चाय बनाना तय किया । यहाँ भी 5-6 टपरी है और एक में तो चूल्हा अभी भी जल रहा है । शिकारियों ने शायद रात यहीं बिताई थी । जल्द ही गर्मागर्म चाय के कप चारों के हाथों को गर्मी पहुंचा रहे थे ।
छाला की ऊँचाई 2490 मी. है और यह स्थान सल्ली से लगभग 6 किमी. दूर है । चाय पीकर आगे बढे ही थे कि बर्फ शुरू हो गयी जैसा शिकारियों ने कहा था । जहां-जहां धूप नहीं पहुंच पा रही थी वहां-वहां बर्फ की मोटाई करीबन 1 फीट थी । अब हमें दूर पीली सफेदी और हरी छत वाली सराय दिखाई देने लगी थी, यह सराय ही हमारा आज का निवास स्थान होगी । बर्फ को चीरते हुए हम आगे बढ़ते रहे । जितना सराय के पास पहुंचते जाते उतना बर्फ की गहराई बढ़ती गयी । आखिर का 500 मी. रास्ता पार करने में 30 मिनट लग गये ।
स्थानियों ने बलेनी माता में बढती मान्यता को देखते हुए काफी समय पहले यहाँ सराय बनायी ताकि थके-हारे यात्रियों को सोने का स्थान मिल सके लेकिन यहाँ तो ताला लगा है । बड़का जी और रॉकी ने काफी प्रयास किया कि कहीं तो ताले की चाबी मिल जाये लेकिन 30 मिनट तक जब सफलता हाथ न लगी तब हमने इस स्थान से आगे जाना ठीक समझा । वैसे सराय के गेट के ऊपर से भीतर साफ़-साफ देखा जा सकता था कि भीतर राशन, कम्बल और बड़े-बड़े बर्तन तरीके से सजाएं हुए हैं यात्रियों के लिए । परन्तु आज वो दिन नहीं जब यह सराय यात्रियों के काम आ सके ।
सराय जिस स्थान पर है इसका नाम चरखोटू है, यहाँ की ऊँचाई 2705 मी. है और सल्ली से 8.4 किमी. दूर है । यहाँ से पास की दूरी 4 से 5 किमी. ही रह जाती है ।
तो चरखोटू से आगे बढ़ते ही बर्फ और गहरी हो गयी ऊपर से मुसीबतें तब और बढ़ गयी जब यह पता चला कि जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं उसके नीचे पानी के नाले बह रहे हैं । हर 10 कदम बाद दोनों में से कोई-न-कोई पैर बर्फ में कमर तक घुस जाता । संघर्ष था अगले बेस कैंप तक पहुंचना । शाम 5 बजे घुटनों तक भीगकर जैसे-तैसे हम बलेनी पास के बेस कैंप पहुंच गये ।
बलेनी पास का बेस कैंप : इस स्थान पर करीबन 10 से 12 टपरियां हैं । मार्च-अप्रैल में गद्दी आकर इन्हें दुरुस्त करके फिर से रहने योग्य बना लेते हैं । लेकिन वो मार्च की बात है और अभी है दिसम्बर । 90 दिन का गैप है और इन 90 में से एक रात हम भी बिता लेते हैं ।
इस स्थान की ऊँचाई 2850 मी. है । सल्ली से यहाँ तक की दूरी लगभग 9 किमी. है और यहाँ से पास की दूरी करीबन 2-3 किमी. है । यहाँ पड़े एक बड़े पत्थर की माने तो लामडल झील यहाँ से मात्र 12 दूर रह जाती है, जहां पास को पार करके पहुंचा जा सकता है ।
जब तक नूपुर और बड़का जी आशियाने तक पहुंचे तब तक रॉकी और मैंने लकडी और पानी का इंतजाम कर लिया । शाम के साढ़े पांच बजे हैं और तापमान अभी से -2 हो गया । पता नहीं रात कैसी कटने वाली है । अभी तो कुछ नहीं पता कि आगे कितनी बर्फ है और पास तक पहुंच भी पाएंगे या नहीं? ।
अगली कड़ी में पढ़ें कि हमने नया साल कैसे मनाया वो भी -7.5 डिग्री तापमान में, और कल तो बर्फ भी गिरेगी । तब तक बने रहिये गर्भ के साथ । जय बलेनी माता, जय हिमालय ।
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माता चंद्रेला की ओर |
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जय माँ चंद्रेला |
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पहली रात इसी टपरी में बितायी |
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तेरा इश्क सूफियाना |
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स्लीपिंग बैग और चाय की तैयारी |
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बड़का जी के अनमोल वचन |
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बलेनी पास बेस कैंप की ओर |
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स्थानीय शिकारी वापस जाते हुए |
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धलेध : सामने वाले नाले से रास्ता सीधा करेरी झील जाता हैं |
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रॉकी रॉक्स |
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छाला में चाय के बाद |
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सामने दिखाई देती चरखोटू की सराय |
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बड़का जी बर्फ में बड़ते हुए |
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फोटो के बीच में दिखता बलेनी पास बेस कैंप |
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और यह रही हमारी हवेली |
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अन्दर चाय बन रही है और बाहर सूरज ढल रहा है |
भाग-2 : बलेनी पास बेस कैंप - सल्ली
Tumhare blog padkr Maja Aa jata h
ReplyDeleteअगर सच में ऐसा हो रहा है तो यह मेरा सौभाग्य है ।
DeleteBahut sundar
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद श्रीमान ।
Deleteजबरदस्त जज्बा
ReplyDeleteओर लेखन
शुक्रिया इसे जबरदस्त समझने के लिए । आपका दिन शुभ रहे ।
Deleteफोटोग्राफी बहुत ही मस्त
ReplyDeleteकला पहचाने की आपकी कला भी लगता है बहुत ही मस्त है ।
Deleteएक बर्फीले सफर की यात्रा का रोमांच भुगतने वाला ही जान सकता है कि दर्द में मजा कैसे लिया जाये।
ReplyDeleteवाह कहां की बात कहाँ जोड़ी है...इसी वजह से तो मैं आपका झबरा फैन हूँ भाई । धन्यवाद ।
Deleteयह यात्रा आज फिर पढ डाली, अब अगले लेख की बारी
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी मेरे लिए रेगिस्तान में हरियाली की भांति है । अनेकों शुभकामनाएं भाई जी ।
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