17 अक्तूबर 2017
पिछली रात सोने से पहले की गई बैठक के अनुसार हमनें सुबह 5 बजे उठकर तेज-तर्रार तरीके से फ्रेश होकर साढ़े पांच बजे होटल छोड़ा । सबकुछ ठीक था लेकिन इतनी सुबह कौन उठता है वो भी सुबह के 5 बजे, प्रेशर तो किसी को आया नहीं बस मुंह-धोकर सभी गाड़ी में लध गये । बाहर ठंडी हवा कहर ढा रही थी और भीतर बिना फ्रेश हुए 4 फरिश्ते नाक के बाल जला रहे थे । आखिर इंसान ही इंसान के काम आता है और यहाँ यह कहावत सिद्ध हो गयी जब चारों ने अपनी-2 जान बचाने के लिए ओस से ढंके शीशे नीचे कर लिये ।
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बद्रीनाथ मंदिर 2010 |
लगभग 2 घंटे में हमने जोशीमठ को क्रॉस किया । मास्टर ने बताया कि “सर्दियों के लगभग 6 महीने बद्री विशाल की पूजा यहाँ की जाती है” । आगे बढ़े तो एक बड़ा पुल आया जिसके सामने एक बहुत बड़ा हरे रंग का बोर्ड लगा था जो कह रहा था “विष्णु-प्रयाग हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट, जे.पी.ग्रुप” और टैग लाइन थी “नो ड्रीम टू बिग” । विशाल पुल टैग लाइन की सच्चाई अपनी जुबां से कह रहा था । विष्णु-प्रयाग ‘अलकनंदा’ नदी पर पांचवा और आखिरी संगम था, यहाँ ‘अलकनंदा’ में ‘धौलीगंगा’ नदी खुद को समर्पित करती है ।
विष्णु प्रयाग पार करने के बाद जो दुनिया शुरू होती है उसने मुझे अपने होशो-हवास खोने पर मजबूर कर दिया, वो पहाड़ मेरे फेवरेट बन गये । जितने वो ऊँचे थे उतने ही मेरा उत्साह भी ऊँचा होता गया । उन काले रंग के कुतुबमीनार से खड़े पहाड़ों ने अपना काम कर दिया था, जी हाँ उन्होंने मुझे अपना बना लिया था । कभी लगे कि इन्हें छू लूँ, कभी लगे कि छूते ही मुझपर न आ गिरे । सबकुछ भूलकर सिर्फ इतना कहना ही याद रहा “खिड़की बंद कर लो भाई ठण्ड लग रही है” ।
“वाहे गुरु जी दा खालसा, ते वाहे गुरु जी दी फ़तेह”, बोलकर गोविन्द जी के साथ हमने भी अपने हाथ जोड़े । ये गोविन्दघाट है यहीं से ‘हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे’ की कठिन यात्रा शुरू होती है, सरदार जी ने हमारी जानकारी में वृद्धि करते हुए कहा और कार फिर से स्टार्ट करी । अभी काले ऊँचे पहाड़ों का मोह भंग भी नहीं हुआ था कि मन पतंग बनकर ‘हेमकुंड’ उड़ जाने को करने लगा । पहली बार कुदरत के इतने रूबरू आकर उसके स्वचालन का बोध हुआ, ये तो विकसित साम्राज्य है ।
विकसित साम्राज्य का कारपेट कहीं-कहीं से फट और मैला हो चुका था लैंड-स्लाइड की वजह से । एक छोटे से लैंड-स्लाइड में 20-25 मिनट फंसने के बाद जल्द ही गाड़ी फिर से अपनी मध्यम से भी कम स्पीड से ‘कुदरत के कारपेट’ पर दौड़ने लगी । “लो जी पहुंच गये”, सरदार जी की आवाज सुनते ही मैंने बंद आंखे तुरंत खोली ।
“सच में हम तो पहुंच गये, ये जगह तो..........फोटो से भी ज्यादा खुबसूरत है” । गाड़ी से उतरते ही चारों ने एक ही बात एक साथ कही, “स्वर्ग में आपका स्वागत है” ।
अपने-अपने बैग चारों ने अपने कंधे पर लटका लिए और अलकनंदा पर बने पुल को पार करके बद्रीनाथ मंदिर की तरफ जाने लगे ।
“गेरूवे कपड़े पहने साधु भिक्षा मांग रहे थे, लोगों के चलने पर नदी पर बना पुल थोड़ा-थोड़ा झूल रहा था, लोग लगातार फोटो खींच रहे थे, मंदिर के गेट ने रंग-बिरंगे रंगों का मुकुट पहना हुआ था, खुशबूदार फूलों की मालाएं बिक रही थी, नीचे अलकनंदा नदी अपने वेग से बह रही थी, एक तरफ लोग नहा रहे थे और कपड़े भी धो रहे थे, मंदिर के पीछे 2 विशाल बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे, सफ़ेद बादल इनपर गिलहेरियों की तरह दौड़-भाग कर रहे थे”, कि अचानक साधु बाबा से टकराया और बैग झूलते पुल पर गिर पड़ा ।
“माफ़ करना बाबा”, माफ़ी बाबा से मांगों मुझसे नहीं, ‘जय बद्रीविशाल’ बोलकर साधु बाबा लाल रंग के झंडों के पीछे विलीन हो गये । न जाने किस बाबा से माफ़ी मांगने को बोलकर खुद बाबा जी गायब हो गये ।
“बाबा की नगरी में आपका स्वागत है”, बोलकर एक माताजी मेरे सिर पर हाथ रखकर चली गई । ये क्या हो रहा है, ये कैसी नगरी है ? कहीं मैं किसी के सपने में तो नहीं पहंच गया हूँ ?। यहाँ लोग इतने मीठे क्यों है और ये बाबा कौन है भाई जिसके बारें में यहाँ सब जानते हैं ?। मैं तो अपने खयालों में खोया ही रहता अगर मास्टर मुझे न आवाज लगाते जो पुल पार सिर्फ कच्छे में खड़े थे और चिल्ला रहे थे “रोहित अभी तक पुल पर क्या कर रहा है जल्दी यहाँ आजा” ।
“ये तप्त कुण्ड है इसे कर्णकुण्ड भी कहते है, इसमें एकदम गर्म पानी निकलता है जिसमें गंधक मिला है इसलिए 10 से 15 मिनट ही नहाना नहीं तो मितली आने लगेगी बच्चा”, बोलकर साधु बाबा ने कुण्ड में डुबकी लगा दी । तुरंत ही मैंने भी अपने दुबले शरीर को कपड़ों के बोज से हल्का किया लेकिन जैसे ही कुण्ड में पैर डाला वैसे ही बाहर निकाल लिया, “धीरे-धीरे बच्चा” । बाबा के कहे अनुसार पहले अपने आप को सिर से पाँव तक गीला किया तब कहीं जाकर कुण्ड में उतर पाया । मास्टर और प्रवीन पहले से ही कुण्ड में मस्ती कर रहे थे । कुण्ड अजूबे का केद्र बन गया जब बाबा आलती-पालथी मारकर कुण्ड में तैरने लगे ।
“ये आपने कैसे किया ?”, मेरे बच्चों वाले सवाल का बाबा ने बड़ा अजीब सा जवाब दिया लेकिन पहले उन्होंने अपनी मुस्कान कुण्ड में फैलाई और फिर बोले “मैं कर नहीं रहा हूँ ये हो रहा है एक दिन तुम भी करना छोड़ दोगे तो यही नहीं सब हो जायेगा” । उनकी लट हाथ में लेकर मैंने एक और सवाल किया इस उम्मीद में कि इस बार वो अजीब सा जवाब नहीं देंगे । “क्या यहाँ सभी लोग आपकी ही तरह पहेलियों में बातें करते हैं ? । हा हा हा वो बहुत जोर से हँस पड़े । कितना अजीब जवाब दिया था उन्होंने मुझे जो आज भी याद है ज्यों का त्यों ।
बेशक कुण्ड से बहार आकर कपड़े चेंज कर लिए थे लेकिन अभी भी मितली वाला मन बना हुआ था । आखिरकार वो पल आ ही गया जब हम फोटो वाले मंदिर में प्रवेश करेंगे । ये पहली और आखिरी बार था जब मैंने प्रषाद ख़रीदा और चढ़ाया । इस पहली ही बार ने आखिरी बार तक की तृप्ति दे दी थी ।
मंदिर परिसर में मोबाइल, चमड़ा, और कैमरा ले जाना मना है लेकिन मास्टर गुप-चुप तरीके से फ़ोन भीतर ले गया और भीतर का विडियो बनाने लगा लेकिन इस हरकत को देख लिया गया और हमारा ही सीन बन गया । वहां काम करते एक कार्यकर्ता ने उन्हें देख लिया और पुलिस के पास लेकर चलने की धमकी देने लगा । उसका गंभीर चेहरा देखकर लग भी रहा था कि वो पुलिस के पास ले भी जायेगा और मार भी खिलवाएगा जैसा वो कह रहा था । हाथ-पैर जोड़कर काम बन गया और मास्टर ने न जाने क्या डिलीट करके उसे संतुष्ट कर दिया ।
कितना भव्य था वो मंदिर, कैसा एहसास था, सामूहिक ऊर्जा ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था । आज तो याद भी करना कठिन है कि उस वक़्त मंदिर के भीतर हमने क्या-क्या देखा लेकिन एक चीज़ जो कभी न भुला सकूंगा वो है ‘भगवान् विष्णु’ की मूर्ति । वैसे तो वहां कई और मूर्तियाँ भी थी लेकिन याद रही सिर्फ ‘भगवान् विष्णु’ की मूर्ति । पंडित जी ने जो-जो बताया वो-वो वहां की भव्यता में न जाने कहां खो गया । कब हाथ से लेकर प्रषाद चढ़ा दिया गया और न जाने कब हम बाहर आ गये । सबकुछ एक परिकल्पना के तरह अपने-आप हो गया । मंदिर के भीतर एकदम शांत माहौल था लेकिन सीने में मानो कोई भीतर से ह्रदय के दरवाजे को जोर-जोर से खट-खटा रहा था । “क्या कोई वहां से रिहा होने की कोशिश कर रहा था या मुझे जगाने की” ? ।
“चलो जल्दी से माणा भी हो आते है फिर निकलना भी तो है”, मास्टर ने याद दिलाया, हमने उनकी तरफ देखा और उन्होंने हमारी और हम तीनों ने सरदार जी की तरफ । कई बार चारों ने आपस में नज़रे चार करी फिर मास्टर ने कहा कि “पैदल ही चलेंगे वैसे भी माणा यहाँ से सिर्फ 3 किलोमीटर ही तो दूर है” । उन्होंने उँगलियों पर एक....दो....और तीन गिन कर दिखाया । मैंने और प्रवीन ने पहले तो थोडा अटपटा महसूस किया क्योंकि 3 किमी जाना था और फिर 3 किमी आना भी तो था । हम आपस में बात ही कर रहे थे कि 6 किमी ज्यादा हो जायेगा वैसे भी जब गाड़ी वहां जा सकती है तो पैदल जाने की क्या जरुरत है । शायद मास्टर को ट्रैकिंग ही करनी थी इसलिए उन्होंने हमें लुभाने के लिए जो बात कही उसे सुनकर दोनों बिना किसी और शर्त के तुरंत तैयार हो गये ।
“माणा भारत का आखिरी गाँव है”, अब बोलो चलना है या नहीं ?
I.T.B.P. कैम्प को क्रॉस करके हम तेजी से अपनी मंजिल की और बढ़ने लगे लेकिन कुछ दूर निकलते ही साँसे ऐसे फूलने लगी जैसे हम अस्थमा के मरीज हो । 1 किमी के बाद तीनों एक पेड़ के नीचे बैठ गये, बाकियों का तो पता नहीं लेकिन मैं सोचने लगा कि काश गाड़ी से आ जाते तो कब का पहुंच गये होते । प्रवीन ने मेरे मन की बात भांप ली थी तभी उसने कहा कि “मास्टर सरदार जी को कॉल कर दो कि गाड़ी लेकर हमे माणा पर मिले, आते वक़्त अस्थमा के मरीज गाड़ी से ही जायेंगे” । कनपटी से गिरती बूँद ने मास्टर को इस प्रस्ताव पर हाँ बोलने के लिए तैयार कर दिया ।
डेढ़ घंटे की ट्रैकिंग के बाद आख़िरकार हम भारत के आखिरी गाँव में एक चाय की दूकान पर बैठकर चाय पी रहे थे । माणा छोटा सा लेकिन सुंदर गाँव है, जहां स्त्रियाँ भेड़ के बालों के ऊन से मोज़े, मफलर, टोपियाँ बना रही थी । देश की आखिरी दूकान पर चाय पीकर मजा आ गया । यहाँ हमने व्यास गुफा, गणेश गुफा, और भीम पुल देखा । चाय वाले अंकल जी ने बताया कि यहाँ से कुछ किमी दूर स्वर्ग की सीढियाँ हैं जहां से पाण्डव स्वर्ग गये थे, चाहो तो आप लोग भी वहां जा सकते हो । धन्यवाद् अंकल जी जानकारी के लिए लेकिन अब हमें जाना होगा, सोमवार को ऑफिस भी तो जाना है । मास्टर को ऑफिस वाली बात नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि ऑफिस के बारें में सोचते ही मन अपसेटवा हो गया ।
सरदार जी गाड़ी के साथ हमें माणा गाँव ही मिले । गिरते पड़ते, हांफते-उंघते गाड़ी में लध गये और शुरू हो गया वापसी का उदासी भरा सफ़र । तीनों में से कोई भी वापस नहीं जाना चाहता था लेकिन ताजुब तब हुआ जब सरदार जी ने भी यही कहा ।
बद्रीनाथ बस स्टैंड को गाड़ी धीरे-धीरे क्रॉस कर रही थी, ब्रेक लगे और गाड़ी रुक गयी । चारों ने एक बार फिर से मंदिर और पर्वतों के बहाने उस दृश्य को सम्पूर्ण रूप से अपनी आँखों में बसाया और जोर से बोले “जय बद्री विशाल की” ।
शायद सभी की आँखें मेरी ही तरह नम हो गयी थी, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे शरीर से जान ही निकल गयी, रह-रहकर बार-बार बीते पल याद आते जाते । “अब मैं वो मैं नहीं रहा जिसके साथ मैं वहां गया था बल्कि अब मैं एक नया मैं था जो पहले मेरे साथ नहीं था, एकदम ताजा और नया” । डर लग रहा है खुद से ही, डर लग रहा है खुद के बदलाव से । सरदार जी के फ़िल्मी डायलाग ने मुझे झंझोड़ा, “लगता है पाजी आप पर ‘बद्रीनाथ का भूत’ चढ़ गया है”
जाते वक़्त जो यात्रा सीधी थी वो अब उलटी हो गयी । सभी जगहें उल्टे क्रम में दौड़ने लगी । बेशक हम आगे जा रहे थे लेकिन मन को हम बहुत पीछे छोड़ आये थे । चारों ने कुछ नहीं बोला गाड़ी के साथ गुरबानियाँ चलती रही और एक एक करके गोविन्दघाट, विष्णु प्रयाग, जोशीमठ, चमोली, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग सब पीछे छुटते गये । शाम होते होते हम रुद्रप्रयाग पहुंचे जहां एक सस्ता सा कमरा लेकर डेरा डाला । डिनर के बाद कम से कम बात करके तीनों मन में फैली ख़ामोशी की तरह खामोश होकर सो गये ।
अगली सुबह सभी 6 बजे उठ गये, जो फ़्रेश हो पाया हो गया जो नहीं हो पाया उसे रस्ते में कहीं करा देंगे सोचकर वहां से करेक्ट 7 बजे चल पड़े । आज हमें हरिद्वार पहुंचकर आज की ही बस पकड़ कर दिल्ली भी पहुंचना है क्योंकि कल से ऑफिस ज्वाइन जो करना है । #नर्क_की_वापसी
योजना के मुताबिक हम लगातार चले और देवप्रयाग में आकर खाना खाया । ज्यादातर वक़्त सोते सोते ही कटा और हरिद्वार हम दोपहर 2:30 बजे उतरे । ये विदाई का पल था भले ही हम सरदार जी को नहीं जानते थे लेकिन 2 ही दिनों में हमने उनकी शुद्ध इंसानियत को पहचाना था, उनकी मेहनत के 6500 रु देकर हम गंगा के किनारे की तरफ बढ़े जहां तीनों ने एक-एक दुबकी लगाई ।
शाम 4 बजे हमने दिल्ली की बस पकड़ी जिसने दिल्ली रात 12 बजे उतारा । कोई ऑटो और कोई बस से रात को ही अपने घर पहुंचा । घर से बद्रीनाथ और बद्रीनाथ से घर तक का खर्चा 3760 रु प्रति व्यक्ति आया ।
“इस तरह हिमालय के गर्भ में हमने खुद को पलते देखा, और अब वो हमें देखता है उसपर खेलते हुए” ।
धन्यवाद् “बद्रीनाथ का भूत” पढ़ने के लिए ।
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विष्णुप्रयाग
पर बना जे.पी. ग्रुप का महापुल
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मास्टर को तहेदिल से नमस्कार मुझे बिगाड़ने सुधारने के लिए |
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सरदार गोविन्द सिंह, विचारों से भी किंग |
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एक फोटो मेरा भी |
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और यह रहा प्रवीन, भाई जी ने नई जींस खरीदी यहाँ के लिए |
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फोटो वाले मंदिर की एक रंग-बिरंगी सेल्फी |
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काश हम भीतर की
फोटो भी खींच पाते
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माणा से दिखते
बर्फ से ढके पहाड़
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गर्मियों में
स्थानीय लोग आलू बोते हैं और भेड़ की ऊन से मोज़े, टोपी, मफलर तैयार करते
हैं
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भारतीय सीमा की अंतिम चाय की दूकान पर आपका स्वागत है |
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व्यास गुफा जो
खुद दिखने में किसी पौथी ने काम नहीं लगती
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और एक डुबकी गंगा
में । तन नहीं मन की शुद्धि के लिए
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बढ़िया संस्मरण
ReplyDeleteशुक्रिया श्रीमान
Deleteलगातार आपके सभी पोस्ट एक ही दिन में पढ़ डाले..... मजा आ गया ..... बहुत खूब।
ReplyDeleteगौरव जी आपको प्रणाम है सभी पोस्ट न सिर्फ पढ़ने के लिए बल्कि कमेन्ट करने के लिए भी। स्वागत है आपका।
Deleteमनभावन लेखनी
ReplyDeleteसादर वन्दन आपकी मेहनत से हमे हमे सिर्फ एक ही क्लिक पर यात्रा करवाते है
धन्यवाद यहाँ आने के लिए और आपके कमेन्ट का। शुभकामनाएं
Deleteयह ब्लॉग एक संग्रहशाली ज्ञानस्रोत है। मैं इसे बहुत मान्यता देता हूँ। मेरा यह लेख भी पढ़ें बद्रीनाथ मंदिर का इतिहास
ReplyDeleteधन्यवाद कमेंट करने के लिए, मैंने पढा आपका ब्लॉग लेकिन मुझे कहीं आपके विचार दिखाई नहीं दिए। दी गयी जानकारी तो इंटरनेट पर भी मौजूद है। धन्यवाद
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