16 अक्तूबर 2010
लोग कहते हैं कि किसी भी यात्रा पर जाने लिए वहां से बुलावा आना जरुरी है नहीं तो आप वहां जा ही नहीं सकते । बुलावे-वुलावे का तो पता नहीं हाँ लेकिन इतना जरुर पता था कि लगातार आती तीन छुट्टियाँ को मेरे दोस्त यूँ ही बर्बाद नहीं करना चाहते थे । उनके चेहरे की ख़ुशी देखकर ऐसा लगता जैसे इन तीन दिनों में दोनों को मोक्ष मिल जायेगा और शायद साथ में मुझे भी । वो अपनी बातों में डूबकर इतना उत्साह दिखाते अगर उस वक्त उन्हें कोमन्वेल्थ गेम्स में भाग लेते एथलीटस भी देख ले तो 2 गोल्ड पक्के कर लें ।
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बद्रीनाथ मंदिर 2010 |
उनकी बातों ने मौसम को बदल दिया था और अब तो मेरी भी हालत ऐसी ही थी कि अगर इस मुद्दे पर उनकी बातें न सुनूं तो खाना हजम न हो ।
वो दोनों रोज सुबह 9:30 बजे ऑफिस पहुंचकर देर शाम ऑफिस की छुट्टी तक बस इन तीन छुट्टियों की ही बातें करते रहते और में एक अच्छे श्रौता की तरह उनकी मनमोहक पंचतंत्र की कहानियों को सुनता रहता । अभी तक तीनों को ही नहीं मालूम था की इन तीन स्वर्णिम दिनों का क्या करना है ?
समय धीरे-धीरे जब आगे बढ़ा तब जाकर कुछ दिनों पहले की गयी बातचीत का परिणाम निकला ।
“चलो बद्रीनाथ धाम” ।
कौनसे धाम और कहाँ चलें ?
अब उनकी बातें मेरी समझ से परे जाती जा रही थी । कभी-कभी तो मैं इस कदर ब्लैंक हो जाता मानो बोस ने इस महीने की सैलरी देने से मना कर दिया हो ।
“ये है बद्रीनाथ मंदिर”, फोटो दिखाते हुए रजत सर ने कहा ।
मैं मंदिर के पीछे दिखते बर्फ से लधे पहाड़ों को देखकर अपनी सूझभूज खो बैठा था ।
“समझ गया ना जो मैंने कहा”, रजत सर के इन शब्दों ने मुझे वापस कम्पूटर के सामने ला खड़ा किया । उन्होंने क्या समझाया मेरे कुछ अल्ले-पल्ले नहीं पड़ा, हाँ अब इतना जरुर समझ आ गया था कि इस जगह जिसका नाम बद्रीनाथ है वहाँ जाना ही होगा चाहे कुछ हो जाये ।
लंच टाइम में रजत सर ने सारी योजना हम दोनों के सामने रखी जिसके अनुसार हम बुधवार 13 अक्टूबर 2010 को ऑफिस से डायरेक्ट कश्मीरी गेट जायेंगे जहां से बस के द्वारा हरिद्वार पहुंचेंगे और फिर वहां से बस बदलकर सीधा बद्रीनाथ । कैसा लगा प्लान ? प्रवीन का तो पता नहीं लेकिन मैं सिर्फ इतना ही सोच पाया कि रजत सर को इतनी जानकारी किसने दी ? हम दोनों ने अच्छे बच्चे की तरह गर्दन हिलाकर योजना पर मोहर लगायी ।
मास्टर (रजत सर को मास्टर भी कहते हैं) की बताई डिटेल्स के अनुसार मैंने एक बैग तैयार किया जिसमे 2 जोड़ी कपडे, तेल, टूथ ब्रश, तौलिया, जर्सी और एक कच्छा लेकर समय पर ऑफिस पहुँच गया जहाँ प्रवीन और मास्टर भी अपने ठुसंथुस भारी बैगों के साथ नजर आयें ।
आज काम में बिलकुल मन नहीं लगा हर पल आँखों के सामने बर्फ से ढके पर्वत ही दिखयी देते रहे । जैसे-तैसे दिन पूरा हुआ और तीनों अपने ऑफिस के दोस्तों को बाय-बाय बोलकर चल पड़े । आज भी याद है उन सभी के चेहरे, उनके भाव देखकर ऐसा लग रहा था जैसे नासा ने उनके साथ विश्वासघात करके हम निकम्मों को चाँद पर जाने का मौका दिया हो ।
शाम साढ़े सात की बस से हम हरिद्वार के लिए रवाना हुए । हम अभी तक कहीं भी नहीं पहुंचे थे लेकिन छाती के भीतर दिल ऐसे धड़क रहा था मानो सीने को फाड़कर बाहर आ जायेगा । कश्मीरी गेट से निकलते ही बस जाम में फंस गई । आजकल दिल्ली में कोमन्वेल्थ गेम्स की धूम जो मची है ।
नींद से जब जागा तब बस रुकी हुई थी और दिल की धड़कन भी, “कहीं हम पहुँच तो नहीं गये?”, “आजा रोहित खाना खा ले”, प्रवीन के शब्दों ने जवाब दे दिया था । हम मुज्जफरनगर में थे और हरिद्वार पहुँचने में कुछ घंटें और लगेंगे ।
मुझे नहीं पता कि मैं पहले भी इस जगह आया हूँ या नहीं लेकिन यहाँ सबकुछ अपनेपन का एहसास दे रहा है ।
आठ घंटे की यात्रा के बाद बस ने सुबह 3:30 हमें हरिद्वार बस अड्डे पर उतारा ।
उतारते ही ठंडी हवा ने रोंगटे खड़े कर दिये तुरंत मैंने जर्सी पहनकर खुद का बचाव किया, बाकी दोनों साथियों ने इस हरकत को कॉपी पेस्ट किया । “चलो टैक्सी ढूंढते हैं”, मास्टर की बात बिना काटे दोनों उनके पीछे-पीछे छोटे बालकों की तरह चलने लगे । “मैं सोचने लगा कि योजना के मुताबिक तो हमें बस से जाना था अचानक ये टैक्सी बीच में कहाँ से आ गयी ?”, प्रवीन ने मास्टर से यही सवाल पूछकर मेरे माथे पर बने क्वेश्चन मार्क को मिटाया ।
“आगे कहीं रोड़ बंद है, लैड-स्लाइड की वजह से इसलिए बस कुछ दिनों के लिए बंद हैं इस रूट पर, टैक्सी नहीं बुक करी तो यात्रा यहीं खत्म समझो, बोलो क्या बोलते हो?”, मास्टर ने एक सवाल का जवाब देकर हमें दूसरे सवाल में उलझा दिया था लेकिन हममें इतना जोश था इस यात्रा को लेकर कि विश्व की कोई भी ताकत हमें बद्रीनाथ पहुँचने से रोक नहीं सकती थी । “टैक्सी बुक कर लेते हैं”, हम दोनों ने एक स्वर में कहा” ।
पुरे 3 घंटे एम्बेसडर कारों के गलियारों में घूमते-घूमते निकल गये लेकिन बात नहीं बनी । 8000 टैक्सी का किराया कोई मामूली रकम नहीं थी 5,000 रु कमाने वालों के लिए, पर अच्छी बात ये थी कि हम तीन थे । चिंता के बादल छाने लगे थे । आनन-फानन में गंगा किनारे इमरजेंसी मीटिंग बिठानी पड़ी जिसके तहत ये तय हुआ कि “6000 हजार तक टैक्सी मिलती है तो पक्का कर लेते हैं, क्या बोलते हो?” । “बॉस इज ऑलवेज राईट”, वाले फार्मूला को अपनाकर हम दोनों ने गहरी सांस लेकर ‘हाँ’ भरी” ।
टैक्सी भी शायद हमारी मीटिंग के नतीजे का ही इंतजार कर रही थी तभी तो मीटिंग ख़तम होने के 10 मिनट में हम तीनों टैक्सी में थे । ये टाटा-इंडिगो कार थी जिसे ‘गोविन्द सिंह’ चला रहे थे । सरदार जी ने हमारी मज़बूरी को मध्यनजर रखते हुए 6500 रु किराया फाइनल किया । #500_रु_ज्यादा
“गाड़ी भीतर से एकदम साफ़ थी और हम बाहर से, टायर बाहर से गंदे थे और हम भीतर से” । चाबी से गाड़ी को स्टार्ट करते ही सरदार जी ने जोर से जयकारा लगाया “जो बोले सो निहाल – सत श्री अकाल”, मास्टर और प्रवीन के पीछे मैंने भी “जय भैरों बाबा” बोलकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई, हमारे जयकारे को सुनकर गोविन्द जी ने माथे की क्रिच बिगाड़ते हुए अजीब सा लुक दिया ।
छोटे कद के गोविन्द जी जो की हरिद्वार के रहने वाले है पिछले कई सालों से टैक्सी चला रहे हैं, और पुरे भारत का चप्पा-चप्पा जानते हैं । हम तीनों को उनका चप्पे-चप्पे वाला डायलॉग काफी पसंद आया । अन्दर गुरबानियाँ चल रही थी और बाहर गंगा । जल्द ही हम तेज ट्रैफिक को चीरते हुए ऋषिकेश पहुँच गये जहां पेट्रोल पंप से गाड़ी को जी भरके तेल पिलाया गया ।
हम तीनों को पहाड़ों की ABCD भी मालूम नहीं थी इसलिए हम बार-बार अपने रथ के सारथी से सवाल-जवाब किये ही जा रहे थे । कुछ नहीं में से हम सिर्फ एक ही बात अच्छी तरह जानते थे और वो ये कि हम दोनों 2-2 हजार रु देंगे और बाकि के मास्टर देंगे क्योंकि उनकी सैलरी हमसे दोनों से थोड़ी सी ज्यादा थी ।#टीम_लीडर_जिंदाबाद
जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती गयी वैसे-वैसे गर्मी भी बढ़ती गयी अब हमारी जर्सियां फिर से बैगों की चैनों में बंद हो गयी । सुबह 9 बजे हमने ऋषिकेश पार किया । मुझे नहीं पता था कि हम कौनसे रास्ते से जा रहे हैं लेकिन इतना जरुर जानना चाहता था कि ये घुमावदार रस्ते कौनसे रस्ते पर चलकर ख़त्म होंगे ?। मुझे चक्कर आने लगे थे इसलिए मैंने अपनी आंखे बंद कर ली और जल्द ही ‘नींद माता’ ने अपनी गोद के तकिये को मेरे लिए खाली कर दिया ।
बसें रुकी हुई हैं, बहुत सारी भीड़ यहाँ से वहां घूम रही है, कुछ बीड़ी पी रहे हैं तो कुछ शिकंजी पी रहे हैं । मैं गाड़ी से बिलकुल भी नहीं उतरता अगर पेशाब की दम घोंटू बदबू मेरे नथुनों में बेधरक नहीं घुसती । मास्टर ने बताया कि हम ‘देवप्रयाग’ पहुंच गये हैं । सभी ने कुछ न कुछ खाया, मैंने सिर्फ शिकंजी ली ।
कुछ आगे बढ़ते ही एक ऐसा अनोखा नज़ारा देखने को मिला जिसको देखकर पलकों ने भी झपकना छोड़ दिया । नदी में एक तरफ मटियाला पानी है तो दूसरी तरफ हरे रंग का पानी है । मेरी खोती सुध-बुध को देखकर मास्टर ने कहना शुरू किया ‘ये देवप्रयाग संगम है यहाँ ‘अलकनंदा’ और ‘भागीरथी’ नदी का संगम होता है । यहीं से आगे बढ़कर ये नदी ‘पवित्र माँ गंगा’ कहलाती है । #पिक्चर_अभी_शुरू_हुई_हैं
मेरे लिए तो अजूबों की लाइन लगी हुई थी, अब भला ये श्रीनगर कश्मीर से उत्तराखंड में कैसे शिफ्ट हो गया ? गोविन्द जी ने मेरी अनूठी हरकत ताड़ ली और तुरंत जवाब दिया “पाजी कि होया?, ये उत्तराखंड का श्रीनगर है कश्मीर का नहीं“, मतलब कि हमारे देश में 2 श्रीनगर हैं एक कश्मीर में और दूसरा यहां उत्तराखंड में । इस नई जानकारी ने घूमते सिर को रोक दिया था जो कि सांप से रास्तों की देन थी ।
ये शहर मुझे बहुत पसंद आया क्योंकि यहां स्थानीय लोगों के लिए सारी सुविधाएँ उपलब्ध थी । जहां एक तरफ नदी किनारों को काटकर अपने लिए और जगह बना रही थी वहीँ दूसरी तरह इस शहर में, स्कूल, हाई स्कूल, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज के द्वारा शिक्षा का दायरा भी बढ़ रहा था और गोल-गप्पों व मोमोस की दुकानों का भी ।
आगे बढ़े तो एक और प्रयाग आया । मास्टर की बताई जानकारी के हिसाब से 5 प्रयागों में से हम दूसरा पार कर रहे थे जिसका नाम ‘रुद्रप्रयाग’ हैं । यहां ‘अलकनंदा’ और ‘मन्दाकिनी’ नदी का संगम होता है । तीसरा प्रयाग लंच के बाद आया ‘कर्णप्रयाग’, यहां ‘अलकनंदा’ और ‘पिंडर’ नदी का मिलन होता है । कर्णप्रयाग के सौन्दर्य को निहारते हुए हमने चाय और मैग्गी से पेट की शोभा बढ़ाई ।
आगे बढ़े ही थे कि लैंड स्लाइड से सामना हुआ । यहाँ दिल्ली की तरह लम्बा जाम लगा हुआ था । कर्णप्रयाग से आगे तो कहीं सड़क थी ही नहीं, जो था उसे धूल और मिटटी का साम्राज्य कहना गलत न होगा । दोनों तरफ लम्बी कतारें थी 4 पहियों वाली गाड़ियों की । कुछ ड्राईवर हॉर्न बजाने में व्यस्त थे, कुछ बहार निकलकर बीड़ी पी रहे थे, कुछ आपस में बातें कर रहे थे, तो कुछ JCB के लेट आने पर ड्राईवर को गलियां दे रहे थे । वहीँ मैं और प्रवीन रास्ता साफ़ होने के बाद ट्रैफिक वाले की भूमिका में आ गये । 3 घंटे लगे यहाँ से निकलने में ।
सूरज की गुलाबी परछाई में हमने चौथे प्रयाग ‘नंदप्रयाग’ को भी पार किया, सरदार जी के अनुसार यहाँ ‘अलकनंदा’ और ‘नंदाकिनी’ नदी कंधें से कन्धा मिलाकर समुन्द्र की लम्बी यात्रा पर निकलती हैं । “काश मुझमें भी ये बेकरारी पैदा हो खुद की जादुई यात्रा पर निकलने की” ।
“गाड़ी के माथे पर जलती पीली बिंदी बंद हो गई, स्टील की चाबी कीहोल से बाहर आ गई, डिग्गी खुलते ही बैग बाहर निकल आये” जहां पहुंचे हैं ये मंजिल तो नहीं हैं, हाँ हिस्सा जरुर उसी का है । 600 रु का कमरा फाइनल करके चारों ने पेट भर खाना खाया और रूम में टी.वी. पर आती कोमन्वेल्थ गेम्स की समापन समारोह का मजा उठाया ।
“चमोली में आपका स्वागत है”
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पशुओं का चारा स्थानियों के सिर पर, ये बोज नहीं संतुलन है |
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श्रीनगर से थोड़ा
पहले, गंगा का नाच प्रक्रति के
डी.जे. पर
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एकदम फ्रेश
लैंड-स्लाइड जो आँखों के बिल्कुल सामने हुआ #सचमुच_ताजा
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रुद्रप्रयाग से
आगे गंगे और पहाड़ों का तालमेल
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एक और ताजा लेकिन
छोटा लैंड-स्लाइड कुदरत के कारपेट पर
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हिमालय की मखमली
गोद #हिमालयन_गर्भ
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अगर आप इन्हें
देख चुके हैं या देखने जाने का विचार बना रहे हैं तो
आपको ज़िन्दगी जीने का मज़ा आ
रहा होगा और सोचने का भी #योजना_बनाते_रहो
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मेरे साथी,
शर्ट में मास्टर और टी-शर्ट में प्रवीन
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चार रबड़ के
पहियों पर भागती इंसानी दुनिया #समय_की_बचत
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दिन की अंतिम
किरण के साथ पहाड़ों और हमने ऑंखें बंद करी #आँख_का_खुलना
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रोहित जी बड़ी ही सरल भाषा शैली में आपने वेबतुलिका से अपनी पहली हिमालयी यायावरी को यहाँ गंगे की तरह उतारा है। बड़ी उत्सुकता और हमेशा की तरह अपने सम्पूर्ण निकम्मेपन के साथ आपकी यात्रा वृत्तान्त का में बेसब्री से इंतजार करूँगा। धन्यवाद
ReplyDeleteआपके पहले कमेन्ट ने इस पोस्ट पर चार चांद लगा दिए हैं। उम्मीद करता हूँ आपकी आशाओं पर खरा उतरूँगा।
Deleteबहुत बहुत बधाई इस लेख को लिख कर और हमें इसके बारे में अपना अनुभव बताने के लिए।
ReplyDeleteधन्यवाद देवेन्द्र भाई
Deleteखूब रोचक है, अगले की प्रतीक्षा.... ऐसा लगा की बद्रीनाथ फिर से जा रहे हैं, जिस तरह से आजकल लोग आधुनिक हो गएँ हैं, यह ब्लॉग उनको फिर से एक मौका देगा फिर से प्रकृति को देखना का और नतमस्तक होने का. जो कुछ भी हो, प्रकृति से ही मनुष्य का रूपांतरण संभव है |
ReplyDeleteमास्टर आपका स्वागत है, मुझे बिगाड़ने के लिए दिल से धन्यवाद। हमेशा की तरह हर क्राइम में आपका साथी।🙏
Deleteमजा आ गया पढ कर..
ReplyDeleteशुक्रिया अजय जी, स्वागत है
DeleteEsa lag raha hai ise padh k, ki abhi mai office se seedhe apke ghar aya hu or ap suna rahe ho...ek ek lavz dil se likha gaya hai....jesa juban se vesa hi kalam se.
ReplyDeletesukariya Saransh shabdo ke ehsaso ko samajhne le liya.
Deleteबढ़िया लिखते हैं रोहित जी, अभिव्यक्ति की अनोखी विधा ब्लाॅगिंग में आपका स्वागत है।
ReplyDeleteधन्यवाद यहाँ आने के लिए ।
Deleteबहुत दिनों से ऐसे ही ब्लॉग की तलाश थी जो यहाँ आकर पूरी हुई। शानदार विवरण रोहित जी....
ReplyDeleteएक और शानदार शुक्रिया आपके लिए। धन्यवाद इसे ऐसा समझने के लिए जैसा ये है।
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