ना जाने कितना टाइम बीता, पता नहीं....
ना जाने कितने ब्लॉग पढ़े, याद नहीं......
लाखों-करोड़ों विचार आए, पकड़े नहीं.....
काफी समय से ब्लॉग लिखने की सोच रहा था लेकिन कभी नहीं लिखा । कलम हमेशा हाथ में रही पर शार्पनर से छिला कभी नहीं । इन्टरनेट के पेजों को खाली ही रहने दिया, जबकि अपनी डायरी को नीले पेन से रंगता ही गया । तो अब अपनी की जा चुकी यात्राओं का ब्यौरा यहाँ इन्टरनेट पर पब्लिश करने जा रहा हूँ इस उम्मीद में कि इस यात्रा को मैं सुचारु रूप से जारी रखूँगा ।
लेकिन पिछले कुछ समय से बहुत से लोगों ने एक सवाल दागना शुरू कर दिया कि “ मेरी पहली यात्रा कौनसी थी ?” जब पहली बार इस सवाल पर विचार किया तो दिमाग ने इस सवाल को पहले तो सिरे से ही नकार दिया, लेकिन दूसरे ही पल अजीब सा जवाब भी दिया “ भला ये भी कोई सवाल है ” । अब जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो याद आते हैं कुछ स्वर्णिम पल जहाँ मैंने इस सवाल की खोजबीन की ।
“जय माता दी” का नारा सुनते ही मुझे कुछ समझ नहीं आया शायद 9 साल की उम्र में भीड़ भरी बस में भक्ति संगीत को पचाना काफी आसान था जबकि पेट के मरोड़ को नहीं । हमसब बस से जम्मू क्रॉस करके कटरा जा रहे थे पहाड़ी घुमावदार रास्तों से होते हुए माँ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए । बाद में मुझे पता चला की ये भी मेरी पहली यात्रा नहीं थी ।
“जब तू छोटा था तब तेरी पहली यात्रा हुई थी”, मम्मी का ये जवाब, जवाब से ज्यादा और मुश्किल सवाल बन गया । बाद में मेरे पूछे गए कब, कहाँ, कैसे, क्यों के सवालों का मम्मी ने एकसाथ जवाब दिया ।
“2 साल की उम्र में हम तुझे हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर शहर ले गए थे जहाँ बाबा बालकनाथ के मंदिर जाकर तेरा मुंडन कराया था” । बेशक मुझे सवाल का जवाब मिल गया था लेकिन जवाब मुझे संतुष्ट नहीं कर पाया । करता भी कैसे 2 ही साल तो हुए थे मुझे इस दुनिया में आये हुए ।
एकदिन मैंने स्नोलाइन-कैफे के सामने बैठकर धौलाधार को निहारा और सोचा कि मैंने इन्द्रहार पर चढ़ाई की या इन्द्रहार ने मुझपर । सवाल में ही जवाब था कि मैंने यात्रा कभी नहीं की बल्कि “यात्रा खुद हो गयी” । जैसे नदी को कभी किसी ने जन्म नहीं दिया बल्कि वो तो हो गई ऐसे ही मुझे लगता है कि यात्रा की नहीं गई बल्कि हो गई ।
जन्म के 7 साल बाद सन् 1993 में पहली बार मुझे स्कूल नामक दैत्य के साथ दो-दो हाथ करने का मौका मिला लेकिन युद्ध ज्यादा समय नहीं चल सका क्योंकि स्कूल रूपी साहूकार ने मेरे माँ-बाप की छोटी सी बचत कुछ महीनों में खत्म कर दी ।
1994 में दूसरी बार मुझे फिर से स्कूल जाने का सौभाग्य मिला । यहाँ मुझे 5 साल जी-तोड़ मेहनत करनी थी । परिवार में सभी सदस्यों के मुहँ से बार-बार मेहनत शब्द सुनकर मुझे ऐसा लगने लगा की मैं स्कूल नहीं कोयले की खदान में जा रहा हूँ । “ये स्कूल पिछले वाले से बहुत अच्छा है”, घरवाले हमेशा कहते लेकिन मैं जानता था कि सरकारी स्कूल गरीब माँ-बाप के लिए टिमटिमाते तारे जैसा है जिसके सहारे ये सोचते हैं कि यहाँ पढ़कर हमारा बेटा भी दुनिया में तारे की तरह चमकेगा । ये स्कूल मुझे कभी पसंद नहीं आया क्योंकि तारे पर यहाँ हमेशा ग्रहण ही लगा रहा । जात-पात के चलते 5 साल कड़ी मेहनत करके भी मैं कभी कोई डिविजन नहीं ला पाया । तब समझ ही नहीं आता था की ग्रहण मेरी छोटी जात ने लगाया है या उन अध्यापकों के रवैये ने मेरे प्रति ।
1999 खुशी का साल था जब बहुत धक्के खाकर आखिरकार मेरा दाखिला दिल्ली के सरकारी हाई स्कूल में हुआ । पिछले 5 साल का घाव अभी भरा भी नहीं था कि हाई स्कूल के माहौल ने इसे पहले ही दिन से हरा कर दिया । यहाँ मुझे अपनी ज़िन्दगी के 7 साल बिताने है और मुश्किल ये है की ये कैसे कटेंगे ? पहले 3 साल काफी बुरे गुजरे, तीनों साल IInd डिविजन से संतोष करना पड़ा लेकिन आठवी कक्षा में आकर मेरी ज़िन्दगी ने मुझे अपनी बाँहों में झुलाना शुरू कर दिया । जी नहीं डिविजन-विविजन कोई नहीं आई बल्कि हफ्ते में दो दिन मिलने वाले 6-6 केलों के लालच ने मुझे एन.सी.सी (N.C.C) में दाखिला दिला दिया । अब पढ़ाई से ज्यादा एन.सी.सी में दिल लगने लगा और हाँ पेट भी ।
2004 में ग्यारहवीं में आते ही मैंने पढ़ाई के साथ-साथ अपनी जिम्मेवारी उठाने का फैसला किया, जिसके तहत मैंने अखबार डालने का काम शुरू कर दिया । सुबह 4 बजे उठकर साइकिल पर न्यूज़पेपर ऐजन्सी जाता और घर-घर जाकर अख़बार डालता । पहले साल 600 रु मिलते थे हर महीने के हिसाब से । मेहनत को देखते हुए मालिक ने दूसरे साल तनख्वाह 200 रु और बढ़ा दी और काम भी । स्कूल से मिली रविवार की छुट्टी तो अखबार के बिल वसूलने में ही निकल जाती ।
बिना रेस्ट की ज़िन्दगी ने मुझे आईना दिखाया जब मेरे बारहवीं के बोर्ड एग्जाम थे । डॉ ने बताया की मुझे टी.वी. की बीमारी ने घेर लिया है और अब मैं एग्जाम नहीं दे सकता क्योकि 43 किलोग्राम का शरीर अब किसी भी काम के लिए प्रयाप्त नहीं रह गया है । लेकिन फिर भी ऑटो में जा-जाकर मैंने अपने इम्तिहान पुरे किये । एग्जाम के बाद हॉस्पिटल में दाखिल हुआ । हॉस्पिटल से पास होते ही स्कूल का नतीजा भी अच्छा आया, 53% से पास हो गया था । जहाँ नतीजों ने ख़ुशी का अहसास दिया वहीँ नौकरी ने गम का । बचत और नौकरी दोनों ही बीमारी के साथ पलायन कर गये ।
2006-2008: दिल्ली युनिवर्सिटी की IIIrd कट ऑफ ने मेरे मन में हलचल मचा दी क्योंकि वहां एडमिशन के लिए मेरे 2% नंबर कम थे । 55% पर बी.ए में एडमिशन मिल रहा था जबकि मेरे थे सिर्फ 53%, पुरे के पुरे 2% कम । यहाँ डूबती नाव को सहारा दिया एन.सी.सी के सर्टिफिकेट ने जिसकी वजह से मुझे 5% की छुट मिल गयी । हिप-हिप हुर्रे, 4000 रु फीस कालेज में देकर दाखिला पक्का किया ।
2009 पहली बार मैंने प्रोफेशनली प्राइवेट कंपनी में कम शुरू किया जहाँ शुरुआत 5140 रु से हुई । धीरे-धीरे पैसा बढ़ता गया साथ ही काम और मेहनत के घंटे भी । 2013 में जाकर मैंने काम छोड़ा तब तक में 5-6 कंपनियों में कम कर चूका था । साइकिल के कैरियर से शुरू हुई नौकरी लैपटॉप के इंटर पर ख़त्म हुई । 600 रु के पेपर डालने से कम शुरू किया था और 20120 रु पर इसका अंत हुआ ।
काम छोड़ने की मुख्य वजह थी मेरी हिमालय में बढ़ती दिलचस्पी और इसी शौक को पूरा करने के लिए कम्पनी ने छुट्टी बंद कर दी ऊपर से काम के घंटे 12 से 14 कब हो गए पता ही नहीं चला । नॉन-स्टॉप 14 घंटों ने एकबार फिर से मुझे हॉस्पिटल के बैड पर लाकर पटक दिया । एम्.आर.आई की रिपोर्ट पढ़कर डॉ साब ने फ़िल्मी अंदाज में घोषित किया की मेरे दिल ने भीतर अनशन कर दिया है मतलब की खून की सप्लाई में अड़चन हो रही है, अगर इलाज जल्दी नहीं किया गया तो अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है । रिपोर्ट में जो था वो सच में सीरियस था लेकिन सफ़ेद बालों वाले डॉ साब ने उसे जिस तरह मुहं बनाकर बताया वो काफी मजेदार था । कभी-कभी तो लगता है जैसे एम्.बी.बी.एस. के साथ साथ सभी डाक्टरों को बुरे एक्सप्रेशन बनाने का कोर्स भी कराया जाता है ।
17 दिन हॉस्पिटल में एडमिट रहने के बाद 19वे दिन मैं अपने 2 दोस्तों के साथ गौमुख पर था । दिल की बीमारी के चलते डॉ ने कम चलने और ज्यादा आराम करने को कहा था । मेरे ख्याल से 14km जाना और 14km आना कोई ज्यादा लम्बा चलना तो नहीं माना जायेगा या माना जायेगा ?
यही वो समय था जब मैंने 4-5 साल से चलती आ रही नौकरी का साथ छोड़ा और घुमकड़ी का दामन पकड़ा । और तब से अब तक इसी रस्ते पर आगे बढ़ने के प्रयास घोर रूप से जारी हैं । अच्छा इस बीच मैंने माउंटट्रेंनिंग के 2 कोर्स भी पुरे किये ।
बेसिक माउंटट्रेंनिंग कोर्स, 2015 में उत्तरकाशी (उत्तराखंड) के नेहरु इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटट्रेंनिंग से पूरा किया ।
एडवांस माउंटट्रेंनिंग कोर्स, 2016 में दार्जीलिंग (वेस्ट बंगाल) के हिमालयन माउंटट्रेंनिंग इंस्टिट्यूट से पूरा किया ।
दोनों ही कोर्स में ग्रेड “A” मिला । जल्द ही इस फील्ड के तीसरे कोर्स “सर्च एंड रेस्क्यू” के लिए भी अप्लाई करना शेष है ।
मेरी घुमकड़ी 2 आधार पर हुई, पहली – ट्रैकिंग और दूसरी – साइकिलिंग । ट्रैकिंग मैंने जम्मू एंड कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम में की जबकि साइकिलिंग भारत के लगभग 10-11 राज्यों में की । अपनी इस जर्नी के दौरान हजारों-लाखों लोगों से मिलना हुआ, उन्हें समझना हुआ, हिमालय की छाँव मिली और सबसे आगे खुद से मिला ।
बहुत कोशिश की लोगों को समझने की लेकिन ज्यादातर वक़्त नाकामयाब रहा लेकिन जब खुद को समझना शुरू किया तब सबको समझने में कामयाबी मिली । अब महसूस होता है की यात्रा भीतर से बाहर की ओर नहीं बल्कि बाहर से भीतर की ओर हुई । मैं इसे यात्रा नहीं मानता, ये तो एक पवित्र तीर्थ हो गया है मेरे लिए ।
मेरे तीर्थ में आप सभी का तहेदिल से स्वागत है ।
नमस्कार ।
2007 : कंप्यूटर
क्लास से बंक मारकर दोस्तों के साथ ताज महल घुमने का मौका मिला
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2008 : दिल्ली
यूनिवर्सिटी में अपने अंतिम साल के ख़त्म होने की भावुकता
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2009 : अपनी पहली
प्राइवेट नौकरी के दौरान
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2010 : तीन दिन
की छुट्टी लेकर ऑफिस से बद्रीनाथ के रस्ते पर कहीं
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2011 : कोई तो
बात थी उस समय में जब टशन मारने को दिल करता था
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2012 : जामा
मस्जिद में गर्मियों की एक दोपहर
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2013 : दवाइयों
पर जिंदा फिर भी गौमुख पहुंचा
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2014 : नारनौल, हवामहल के आसपास
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2015 : विंटर
पराशर लेक साइकिलिंग 2 अन्य दोस्तों के साथ
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2016 : बीड में
एक सेल्फी
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इस पहल के लिए ढेरों बधाइयाँ!
ReplyDeleteशुक्रिया प्यार देने के लिए
Deleteरोहित भाई मजा आ गया आपकी कहानी पड़ कर।।
ReplyDeleteऔर खुशी इस बात से हुई कि आपने ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया ।।
बधाईया
लोकेन्द्र जत्थापी
शुक्रिया लोकेन्द्र भाई, स्वागत है आपका यहाँ पर। 🙏
DeleteWahh yha bhi likhna chalu hogaya apka.....maza agya....ye to hamari 100km ride wali story thi...☺☺
ReplyDeleteयहाँ आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, हमारी क्या इस कहानी के के तो सभी पात्र हैं।
Deleteखुद की बेहतरीन खोज सर। आज आपके प्रति मन मे इज़्ज़त और बढ़ गयी 💐💐💐
ReplyDeleteसूरज भाई इसे वैसा ही समझने के लिए धन्यवाद् जैसा ये है
DeleteMast yar mara bar Mai nhi likha
ReplyDeleteThanks Arun bhai...
Deleteसबसे पहले आप की मेहनत और परिश्रम को सलाम।।बहुत ही ग़ज़ज़्ब ओर बढ़िया लिखा है।।आप के बारे में जानकर इज़्ज़त ओर बढ़ गई।बहुत ही बढ़िया।आप से एक मुलाकात की उम्मीद रहेगी।
ReplyDeleteसचिन कुमार जांगडा
यहाँ आने के लिए धन्यवाद् और जांगड़ा साब आप भी मेहनती और परिश्रमी कम नहीं हैं।
Deleteरोहित भाई आपकी घुमक्कडी को सलाम है। चलते रहो, घुमते रहो और घुमाते रहो... घुमक्कडी जिंदाबाद
ReplyDeleteSachin3304.blogspot.in (मुसाफिऱ चलता चल)
धन्यवाद् उत्साह बढ़ाने के लिए, कोशिश पूरी है आप सभी की उम्मीदों पर खरी उतरने की।
Deleteआगाज ये है तो अंजाम क्या होगा?keep it up
ReplyDeleteशुक्रिया नीरज भाई इस आगाज को सम्मान देने के लिए ।
Deleteरोहित बाबा
ReplyDeleteआपको हम सबकी और से ढेर सारी शुबकामनाएं
आप घूमते रहो और अपनी कलम को भी घुमाते घुमाते ब्लॉग लिखते रहो.
आपके अपने
रितेश धीमान (पाजी), अजय बरुआ (बंगाली), मनीष (मस्टर जी), मनीष कुमार (चंडीगढ़), बिरजू (भारत माता की जय)
शुभकामनाएं जो मेरे लिए सीढ़ी का काम करेंगी, शुक्रिया पाजी,डैनी, मनीष यूपी, मनीष चण्ड़ीगड़ और बिरजू।
Deleteआपने अपने जीवन के संघर्षों का भावपूर्ण लेखन किया है
ReplyDeleteआपके जज्बे को सलाम
बस ऐसे ही लिखते रहिये
शुभकामना 😀🍁💖
बहुत बहुत धन्यवाद भावों की गरिमा को समझने के लिए
Deleteसमय के साथ सब कुछ बदलता है, जो काम मन को भाये वही करना चाहिए। शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteमन की बात कह दी ललित सर, मन के जीते ही जीत है। धन्यवाद
Deleteबहुत अच्छी शुरूआत है।आशा है आगे भी अनवरत हमारा ज्ञानवर्धन होता रहेगा।अब इतना अनुभव तो आपको भी हो गया होगा कि घुमक्कड़ो की दुनिया मे कोई जात पात नही होती।
ReplyDeleteआपकी बारे मे पढ कर दिल मे ईज्जत पहले से ज्यादा हो गयी है।
आपका फेसबुक मित्र anil dixit
इस अनूठे अनुभव को ज्यों का त्यों समझने के लिए दिल से धन्यवाद। एक और पर्सनल शुक्रिया यहाँ आने के लिए।
Deleteआज आपकी जीवन गाथा भी पढी, उतार-चढाव तो जीवन का हिस्सा है, लगे रहो भाई,
ReplyDeleteधन्य हुई गाथा आपके आने से बाकी प्रयास जारी हैं । धन्यवाद्
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआप की कहानी पढ़ के लगता है मुसीबतों से जीतना आप से सीखे
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखते हो भाई. आप जैसे लेखकों को ढूंढ ढूंढ कर पढता हूँ. बस ये जात पात वाले जिक्र ने थोड़ा मन खट्टा कर दिया अन्यथा जबरदस्त भाई.
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